पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रभाषा का स्वरूप निवेदन है कि दोनों में एकता है ! दोनों ही हिंदी हैं जो अपने श्राप को आज भी अहिंदी समझते हैं उन्हें हिंदी बनाने का प्रयत्न करना होगा। उन्हीं की भाषा कल फारसी थी। समय के फेर से उन्हीं की भाषा आज उर्दू हो गई है ! कोई कारण नहीं कि उन्हीं की भाषा उन्हीं की कृपा से कल हिंदी क्यों न हो जाय । यदि के सचमुच हिंद की संतान हैं तो हिंदी होकर रहेंगे और यदि ईरान, तुर्क या अरब की संतान हैं तो भी वही करेंगे जो उनके सगे संबंधी अपने देश के लिए कर रहे हैं। रही मजहब की बात । सो खुद कुरान शरीफ़ का फतवा है कि--- वमा असंहला मिन् रसूलिन् इल्ला बेलेसाने कौम ही (सूरा इब्राहीम की आयत ४) यानी और हमने तमाम ( पहले ) पैगम्बरों को (भी) उन्हीं की कौम की जुबान में पैग़म्बर बनाकर भेजा है। (अशरफ अली थानवी का उल्था) अच्छा, तो हमारी 'कौमी ज़बान' क्या है ? उर्दू नहीं। वह तो हिंदी तुर्को फारसों और अरबों की ज़बान है । उसमें हिंद का हिंदीपन कहाँ ? तो फिर वह 'कौमी जवान' है कौन सी? वहीं, वही 'हिंदी' जिसके लिये 'गाढ़े गज़ी' की सारी है। हाँ, वही हिंदी है जिसके बारे में 'बहरी' ने स्पष्ट कहा है-- हिंदी तो ज़बान है हमारी, कहते न लगे हमन भारी । यदि आपको हिंदी का कोई शब्द भारी जान पड़ता है तो उसका प्रयोग न करें। खुशी से उसकी जगह किसी और अपने प्रिय शब्द का प्रयोग करें। पर कृपया भूल न जाँय कि वह इस देश की कमाई है, थाती है। क्या आपके कानों तक उनकी पुकार नहीं पहुँचती जो आपके बापदादों की बानी के जौहर थे ? सुनो।