पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५७

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राष्ट्रभाषा कि ग़ालिब की जमानत हिंदुओं की हिंदू होने की वजह से तहकीर' करती थी बल्कि इस रवैये की पुश्त पर हिंदी और ईरानी निज़ारे मुखासमत और रावत कारफारमा थी और इस मामले में ईरानी नज़ाद हज़रात हिंदुत्रों और हिंदुस्तानी मुसलमानों को एक निगाह से देखते थे। (ो. कालिज मैगजीन, लाहौर, मई सन् १६३१ ई०, पृ० ३६) अतएव भाषा के क्षेत्र में कोई हिंदू मुसलिम द्वंद्व नहीं । हाँ, हिंदी और अहिंदी का झगड़ा अवश्य है। अहिंदी होने के कारण उर्दू हमारी राष्ट्रभाषा हो ही नहीं सकती फिर उसके लिए प्रयत्न करना व्यर्थ है । वह तो सदा परदेश की ही होकर रहेगी, देश की कभी नहीं। उर्दू की स्थिति स्पष्ट हो जाने के बाद हिंदुस्तानी का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता। वह तो यों ही बीच की तिसरैतिन समझ ली गई है। राजनीति के क्षेत्र में जो काम फिरंगी करते हैं भाषा के क्षेत्र में वही काम हिंदुस्तानी कर रही है । मौलाना शिबली ने ठीक ही कहा है- हमेशा एक कशमकश रहेगी। निसाब बनाने में हिंदू और मुसलमान, दोनों अपनी अपनी कौमी जवान यानी अरबी और संस्कृत की तरफदारी करेंगे; और कभी कोई फरीक कामयाब होगा। (मका- लात शिबली, जिल्द दोयम, पृ०७५ ) प्रतिदिन हो भी यही रहा है। किंतु किया क्या जाय ? यदि दोनों को अलग अलग छोड़ दिया जाय तो फिर राष्ट्र का उद्धार किस तरह होगा ? एक दूसरे को किस तरह समझ सकेंगे ? १-भर्सना ।२-इंदू ! ३---विद्रोह | ४-~-शत्रुता । ५-कार्य- प्रेरक । ६--वंश । ७-खींच-तान । ८-पाठ्य ।