पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५४

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राष्ट्रभाषा का स्वरूप कहना न होगा कि यह इसी 'मस्ल' का नतीजा है कि शाह हातिम ने 'भाषा' को खदेड़कर उसकी जगह 'मुग़ली' जबान उर्दू को चालू कर दिया और निहायत दिलेरी के साथ अपने 'दीवानजादा' के दीवाचे में लिख दिया- सिवाय अाँ, जबाने हर दयार, ता बहिंदवी, कि अाँ रा भाका गोयंद मौकूफ़ नमूदः। इसके अतिरिक्त प्रत्येक पड़ोस की भाषा, यहाँ तक कि हिंदी को, जिसको भाषा कहते हैं, त्याग दिया । और उर्दू के एक दूसरे उस्ताद जनाब 'सौदा' ने तो यहाँ तक दौड़ लगाई कि हिंदुस्तान उनके लिए रौरव नरक बन गया। यदि विवश न होते तो क्या करते ? सुनिए तो सही, कितने पते की बात है- गर हो कशिशे शाहे खुरासान तो सौदा, सिजदा न करूँ हिंद की नापाक ज़मीं पर । स्मरण रहे कि अमीर खुसरो जैसे अनेक धार्मिक कवियों ने 'हिंदुस्तान' की भूरि भूरि प्रशंसा की है और इसे 'बहिश्त' ही मान लिया है क्योंकि बाबा आदम को बहिस्त से निकाले जाने पर यहीं शरण मिली थी और मोर सा बहिश्ती पक्षी भी यहीं पाया जाता है पर उर्दू के लाडलों की बात ही निराली है। जो हो, उर्दू के तीसरे उस्ताद 'मीर' भी कुछ कम न निकले। उन्हें मार्मिक दुःख है कि धुनियाधकड़, बनियाबकाल सभी शाइरी में मग्न हैं और इस तरह उनकी पाक जबान को नापाक कर रहे हैं। आप कुढ़ कर कह जाते हैं--