पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५३

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राष्ट्रभाषा me खानसामानों, खिदमतगारों, पूरब के मनहियों' कैंप ब्वाबों, और छावनियों के सत बेझड़े बाशिंदों ने एख्तयार कर रक्खी है। हमारे जरीफुल्तबा दोस्तों ने मज़ाक से इसका नाम पुड़दू रख दिया है। (फरहंगे आसक्रिया, सबब तालीक) याद रहे 'फरहंगे भासफिया' के उदार लेखक ने नवमुसलिम भाइयों को भी उर्दू के टाट से बाहर कर दिया है और उनकी जबान को भी पुडदू ही माना है। यह पुड्डू और कुछ नहीं हमारी प्राप- की हिंदी है। वह हिंदी है जिसके संबंध में एक उर्दू के हिमायती ने लिखा है- हिंदी की दबे पाँच मगर निहायत मुस्तकिल तरको दरअस्ल उर्दू के गले की छुरी है जो एक दिन उसका खून करके रहेगी। हुकूमत भी रंगे ग़ालिब का साथ देनी । ( इफ़दाते मेहदी, मारिफ प्रेस, आजमगढ़, पृष्ठ ३२८) पर हिंदी है किसकी जबान ? उन्हीं हिंदू मुसलमानों और ईसाइयों की जो हिंदी हैं अहिंदी या परदेशी नहीं। परदेशी मुसल- भानों ने क्या किया, जरा इसे भी सुन लें। वही सैयद अहमद फरमाते हैं- उर्दू नज्म ने भी फारसी ही की तर्ज एख्तयार की क्योंकि यह लोग तुर्कीउल-नस्ल थे या फ़ारसी-उल-नस्ल या अरबी-उल-नस्ल । यह हिंदीकी मुताबक़त किस तरह कर सकते थे । (फरहंगे आसफिया, मुक़द्दमा, पृ०८) १--मनुष्यों । २-पड़ाव के चाकरों । ३- मनोविनोदी। ४---- दृढ़।५-विजयी । ६---तुर्की वंश । ७--अनुकूलता।