पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५०

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४० राष्ट्रभाषा का स्वरूप की राष्ट्रभावना को कल की चीज समझते हैं उनसे कुछ निवेदन करना व्यर्थ है । पर जो लोग भारत की एकता के कायल हैं और पद-पद् में उस एकता की व्यापक व्यंजना पाते हैं उनसे यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं रही कि उस एक भारत की एक भाषा भी बहुत दिनों से चली आ रही है। इसलाम श्रा जमने से पहले जिसे हम अपभ्रंश या नागरापभ्रंश कहते थे उसी को अब 'रेखता' या 'नागरी' कहने लगे और आगे चलकर परदेशियों के प्रताप से वह उर्दू भी निकल आई जो यहाँ की परंपरागत राष्ट्रभाषा को सौत' समझने लगी। यहाँ की परंप- रागत राष्ट्रभाषा का नाम हिंदी है । हिंदी नाम हमारा नहीं हमारे घर का नहीं, फिर भी हमारे अपना लेने से वह हमारा हो गया और अब उससे उन लोगों का कोई नाता नहीं रहा जिनके बाप- दादों ने हमारी राष्ट्रभाषा को यह नाम दिया । ऐसा क्यों हुआ ? इसका कारण प्रत्यक्ष है। बात यह है कि हमने द्वेषवश अपनी भाषा को वहीं नाम दे दिया जो हमारे परदेशी भाइयों को अत्यंत प्रिय था। फिर हमारे परदेशी भाई हमारी 'हिंदी' को किस तरह अपना सकते हैं। इसलिए उनको खुश करने के लिये 'हिंदुस्तानी' का नाम चालू किया गया। पर हिंदुस्तानी का राम निराला निकला। वह गँवारों की ओर मुड़ निकली, अब उस पर भी परदेशियों की गहरी दृष्टि पड़ी और शब्दों के लिये बटवारा होने लगा। राष्ट्रभाषा का प्रश्न शब्दों का प्रश्न बन गया । और परदेशी शब्दों के लिये कठोर आग्रह होने लगा। उर्दू के लोगों का दावा है कि उर्दू ही राष्ट्रभाषा है और वही हिंदू मुसलिम मेल से बनी है। उसी का नाम हिंदुस्तानी भी है। पर 'उर्दू' का इतिहास पुकारकर कहता है कि सच्ची बात कुछ और ही है। उर्दू की असलियत क्या है, इसका जान लेना