पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपनी भी सुने उस दिन क्या जानता था कि किसी दिन नागरी-हित के हेसु इतना लोहा लेना पड़ेगा और इस सनिक सी सीधी बात के लिये इतना तूमार बँधेगा । बात यह थी कि इस जन के परम हितैषी श्री दुर्गाप्रसाद जी जोशी को (जो उस समय अपने तप्पा के कानूनगो थे) कहीं से एक सम्मन मिल गया था जो हिंदी के कोठे में था पर भरा गया था कचहरी की फारसी लिपि में ही। पढ़ते-पढ़ते दम निकल गया पर उसका भेद न खुला । जोशी जी ने उसके संबंध में जो कुछ कहा उसको कहने की आवश्यकता नहीं । जानते तो आप भी इतना हैं कि उसे नागरी में ही रहना था और होना था इस रूप में कि वह किसी भी साक्षर की समझ में आ सके । परंतु हमारी कचहरियों का काम समझने के लिये तब होता जब आप अपनी समझ से काम लेते और किसी के सहारे अपना अधिकार पाने का भाव छोड़ देते । संयोग की बात कहिए, उस समय स्वर्गीय अल्लामा शिबली नोमानी के आत्मज का तहसील में राज्य था वही वहाँ के तहसीलदार थे। किया तो उन्होंने बहुत कुछ परंतु श्री जोशी जी भी पहाड़ी जीव थे और सो भी पर्वतराज हिमालय के। अपने लक्ष्य से तनिक भी न डिगे और किसी न किसी प्रकार हिंदी को अपने काम-काज में पनपाते रहे। किंतु यह तो उनकी बात हुई और हुई उनके सरकार की। हमारी सरकार नागरी को अपनाती और उसका व्यवहार जनता के उपकार के लिये चाहती भी है। किंतु यह हो नहीं पाता बीच के रोड़ों के • कारण । इन्हीं रोड़ों की ओर ध्यान दिलाना श्री जोशी जी का काम था और इन्हीं रोड़ों को खोज निकालना इस जन का काम है।