पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रभाषा पर विचार देती तो उसका एकमात्र कारण है अपनी चिर-परिचित परिपाटी को छोड़कर दूसरों की पटरी पर दौड़ने का स्वाँग करना और इस प्रकार के मूड अभिनय से अपने आपको सभ्य समाज में तुच्छ बताना । निदान हम देखते हैं कि अधिकांश पादरी रोमक पंडित डी-नोविली का अनुसरण कर रहे हैं और भारतीयता के पक्के प्रचारक हो रहे हैं । संस्कृत का इन्हें पूरा अभिमान है और उसे भारत की आत्मा की वाणी समझ उसके अभ्यास में लीन हैं। उनमें अँगरेजी का अभाव होता जा रहा है। उनकी संतान अब हिंदी नाम से आगे बढ़ रही है और हिंदी नामों को ही आदर की दृष्टि से देखती है। अच्छा, तो 'छोटा मुँह बड़ी बात' का अभिनय तो समाप्त हुआ । जैसा बना राष्ट्रभाषा का रूप दिखाया गया। अब भरत- वाक्य के रूप में यही शुभकामना शेष रही कि भारत का बच्चा बच्चा अपने राम के स्वर में स्वर मिलाकर अपने सखाओं से एक स्वर में कह उठे- "हमारो जन्मभूमि यह गाउँ । सुनहु सखा सुग्रीव विभीषण अवनि अयोध्या नाउँ। देखत बन उपवन सरिता सर परम मनोहर ठाउँ । अपनी प्रकृति लिए बोलत ही सुरपुर में न रहाउँ । ह्याँ के बासी अवलोकत हौं आनद उर न समाउँ । सूरदास जो विधि न सकोचे तो वैकुंठ न जाउँ ।" वस, राष्ट्रोद्धार और रामराज्य का मूलमंत्र यही है और यही है वह प्रकृति जिसके अनुष्ठान से राष्ट्रभाषा का प्रश्न सिद्ध होगा: अन्यथा कदापि नहीं, कदापि नहीं। -