पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४७

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राष्ट्रभाषा नहीं। अकबर की नीति चलती तो यह घराना ऐसा न मिटता कि कहीं उसका नाम तक नहीं रहता । आज के प्रतिष्ठित राजवंशों में चाहे जितने विदेश से कभी पाए हों पर वे विदेशी नहीं रहे और सभी प्रकार से इस देश की परंपरा, इस राष्ट्र के अतीत के अभिमानी बने । फलतः आज तक जीवित हैं और अपनी भार- तीयता का झंडा फहरा रहे हैं। बाहर देखना हो तो अमेरिका और इंगलैंड को ले लीजिए। आज तो अमेरिका के मूलनिवासी किसी योग्य नहीं पर क्या कोई कह सकता है कि अमेरिका स्वतंत्र नहीं ? उसकी विचारधारा अगरेजी की नकल है ? नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। यदि भारत का उद्धार होना है तो उसकी राष्ट्र- आषा भी वहीं होगी जो आदि-काल से उसकी वाणी रही है और उसके उत्थान-पतन, दुःख-सुख को बराबर देखती रही है। हम यह नहीं कह सकते कि उर्दू जो अपनी परंपरा का अभिमान नहीं है और बहुत गहरा है । पर वह अभिमान अपना नहीं, अपने देश का नहीं, हाँ अपने देश के आततायियों का अवश्य है। उर्दू को सिकंदर का अभिमान है पर ईरान को नहीं। बस यही है वह मूल-मंत्र जो बताता है वह मार्ग जिस पर चलकर कोई राष्ट्र. अभ्युदय को प्राप्त होता और अपने आपको विश्व में सजीव पाता है। प्रसन्नता की बात है कि भारतीय ईसाई सचेत हो उठे हैं और आज भली भाँति इस बात का अनुभव कर रहे हैं कि उत्तका तथा उनके देश का कल्याण काला साहब बनने में नहीं है। उनकी समझ में धीरे धीरे यह बात आ रही है कि अपनी परंपरा और अपनी संस्कृति को छोड़कर कोई जाति क्यों पनप नहीं सकती। उनको विदित हो गया है कि अब उनमें जो साधु सुंदरसिंह और पंडिता रमाबाई सी विभूतियाँ नहीं दिखाई