पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४६

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3 1171 राष्ट्रभाषा पर विचार हमें केवल इतना ही कहना है कि ठहरो, चेतो और देखो तो सही किस उमंग में क्या करने जा रहे हो और विश्व के मनीषी कहाँ तक तुम्हारे साथ हैं। जो इस प्रकार अंगद का पद रोपकर स्वराज्य लेने जा रहे हो । पंडित जवाहरलाल जैसे कर्मशील त्यागी वीर व्यक्ति का सहयोग एक उबाल की भाँति आकर वहीं का वहीं रह जायगा और अंत में स्वयं भी उसी सनातन धारा का अंग होकर रहेगा। सच पूछिए तो आज जो इतना संघर्ष चल रहा है उसका मूल कारण अपने अतीव से अनभिज्ञ होना ही है। यह बहुत ही ठीक कहा गया है कि परंपरा को छोड़ना आत्महत्या करना है। किसी राष्ट्र के जीवन में परंपरा का जो महत्त्व होता उसकी अवहेलना हो नहीं सकती। यदि प्रमादवश आपने उसका परित्याग कर दिया तो आप कहीं के न रहे और या तो किसी अन्य परंपरा के अंधभक्त बन गए अथवा आप के व्यक्तित्व का लोप हो गया और आप किसी बवंडर के पात हुए । जहाँ कहीं देखिए जब किसी राष्ट्र को संकट का सामना करना पड़ा है तब उसने अपने अतीत का स्मरण किया है और अपने पूर्वजों का वल माँगा है। पशु और मानव में सबसे बड़ा भेद यही तो पशु की परंपरा का बोध पशु को नहीं और मानव को अपने अतीत का अभिमान और अपनी परंपरा का गर्व है। भारत के मुसलमानों ने अपनी परंपरा को खो दिया, अपनी आत्मीयता को मिटा दिया और ग्रहण किया ईरानी-तूरानी परंपरा को । परिणाम क्या हुआ ? यही न कि हिंदू से बना हुछा मुसलमान कभी राज्य न कर सका यद्यपि था वह राजवंश का ही और तैमूर की अभिमानी संतान, 'चकत्ता का विलायती घराना' राज भोगता रहा। किंतु हुआ क्या ? कालचक्र के प्रभाव से भारतीयता जगी और वह विदेशी राज्य ऐसा भगा कि आज तक उसका पता