पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४५

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राष्ट्रभाषा नागरी रूप में आ जायगी। फिर तो हमारा उसका सारा द्वंद्व मिट जायगा और नागरी-साहित्य सचमुच नागरों का मुंहमांगा साहित्य बन जायगा। हमारी भाषा में अरव, ईरान, सूरान तो न बोलेगा पर हम ईरान-तूरान के सार को खींच लेंगे और वह ईरानी शैली भी हमारे साहित्य की छवि उतारेगी। पर हम इस हिंदुस्तानी को नहीं समझ पाते। हम महात्मा गांधी को पढ़ते हैं, हम काका कालेलकर को सुनते हैं और न जाने किस किस की बात में उलझते हैं पर सच कहते हैं किसी गहरे पानी में बैठकर हिन्दुस्तानी का रत्नं निकालते नहीं पाते। हाँ, बरबस पानी पीटते अवश्य देखते हैं । निदान उन सभी महानुभावों से हमारा सत्या- नुरोध है कि कृपया वे इसे भूल न जायँ कि हिंदी राष्ट्रभाषा हो चाहे भले ही न हो पर वह उस बड़े भूभाग की भाषा अवश्य है जिसे कभी आर्यावर्त फिर हिंद वा हिंदुस्थान और आज परमात्मा जाने क्या कहते हैं। अस्तु हमें भी उसी प्रकार इस भूभाग पर फलने-फूलने, उठने बैठने और इधर-उधर विचरने का वही अधिकार प्राप्त है जो किसी को अपनी जन्मभूमि पर होता है। यदि आप सचमुच इस भूभाग की भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं तो कृपया कष्ट कर देखें कि वह किस साहित्य में किस वाणी से बोल रहा है, अन्यथा आप जैसी चाहें काम काजी राष्ट्रभाषा गर्दै और जो कुछ बन पड़े हमले भी 'कर' लें पर कभी भूलकर भी हमारी बाणी के विधाता न बनें; हमसे जो कुछ हो सकेगा राष्ट्र साहित्य का निर्माण करेंगे और प्रांतीयता से दूर हो राष्ट्रदृष्टि से अपनी भाषा का विकास करेंगे, क्योंकि यही हमारी परंपरा और यही हमारा सनातन धर्म है। परंपरा के प्रतिकूल जो नवीन धारा बड़े वेग से बह रही है और अतीत को मटियामेट कर ही आगे बढ़ना चाहती है उससे