पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४४

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राष्ट्रभाषा पर विचार फिर नागरी का हो रहा । रोमी लिपि की चर्चा विद्वानों को शोभा दे सकती है किंतु कर्मशील राष्ट्रभक्तों को उससे क्या काम ? उन्हें तो अपनी नागरी को ही सर्वप्रिय बनाना है। बालबोध के लिये विश्व में नागरी से बढ़कर कोई लिपि नहीं । वह आदर्शशक्ति की अमर पताका और अमर वाणी की लिपि है। उसकी लीपा-पोती से राष्ट्र का विनाश होगा, मंगल नहीं । सभी तरह से पूर्ण होने के पहले, उचित होगा अपने अपूर्ण अंगों को भी उतना ही पूर्ण बनाना । यदि किसी एक ही अंग की पूर्णता से स्वराज्य मिलता तो भारत कभी परतंत्र न रहता। नहीं, समांग ही स्वराज्य का अधिकारी होता है। भारत की राष्ट्रभाषा और सच्ची राष्ट्रभाषा वहीं देशभाषा हो सकती है, और है भी, जो समांग नहीं तो समांगता को लिए हुए अवश्य है । यही तो कारण है कि हम नागरी को राष्ट्र की वाणी कहते हैं और उसकी लिपि को ही राष्ट्रलिपि मानते हैं, कुछ अहिंदी उर्दू जबान वा उर्दू खात को नहीं। नहीं राष्ट्रभाषा का प्रश्न हम हिंदी-भाषा-भाषियों के लिये जीवन-मरण का प्रश्न है। हम यह प्रायः देखते हैं कि राष्ट्रभाषा का प्रश्न हमारी देशभाषा को चरता जा रहा है। हम तो अन्य भाषाभाषियों की भाँति अपनी परंपरा को पनपाना और सभी देशभाषाओं के साथ ही आगे बढ़ना तथा राष्ट्र के उद्धार में लीन होना चाहते हैं पर बीच ही में न जाने कहाँ से यह वाणी सुनाई पड़ जाती है कि नहीं तुम्हें तो हिंदुस्तानी को अपनाना होगा। हम उर्दू को जानते, मानते और पहचानते भी हैं और इसी से उससे भयभीत भी नहीं होते। हमारा विश्वास है कि जैसे काल पाकर फारसी ने अपनी रक्षा पर आने के लिये उर्दू का चोला धारण किया वैसे ही कभी उर्दू भी समय देखकर अपना यह विदेशी बुरका उतार फेंकेगी और फिर अपने स्वच्छ, निर्मल, पुराने .