पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४२

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३२ राष्ट्रभाषा पर विचार होने की कोई संभावना नहीं और यदि है भी तो भी तब तक नहीं जब तक वह फिर नागरी की राष्ट्रभूमि पर नहीं आती। उर्दू इसलाम और इसलामी अव का नाम व्यर्थ लेती है। अन्य देशों की बात छोड़िए । यही भारत के सूफियों ने जिस धर्म का प्रचार, जिस मात्रा में, देशभाषा वा हिंदी के द्वारा किया है वह उर्दू में कहाँ है ? जो लोग हिंदी-उर्दू का द्वंद्व देखना नहीं चाहते और सचमुच राष्ट्र का उद्धार और उदय चाहते हैं उन्हें उर्दू की प्रवृत्ति में परिवर्तन करना ही होगा। यदि उनकी समझ में हिंदु- स्तानी का लटका इसके लिये काफी है तो इस काफी का जाप करते रहें। परंतु गत वर्षों का कटु अनुभव तो इसी पक्ष में है कि हिंदुस्तानी का टुकड़ा हिंदी और उर्दू को लड़ाने के लिये ही फेंका गया है। निदान कहना पड़ता है कि इस मोहिनी का परित्याग तुरंत हो जाना चाहिए और राष्ट्रभाषा में राष्ट्रहृदय का स्वागत होना चाहिए। यदि लिपि की दृष्टि से देखा जाय तो नागरी लिपि के सामने उर्दू-लिपि ठहर ही नहीं सकती। भारत को अरबी लिपि का अभिमान कैसे हो सकता है और देश की अन्य लिपियों से उसका क्या लगाव है ? रही नागरी, सो उसके विषय में सभी जानकारों का कहना है कि विश्व की कोई भी लिपि अपने वर्तमान रूप में उसके तुल्य नहीं। यही नहीं, भारत की सभी लिपियों से उसका गहरा संबंध है। कहाँ तक कहें, अरबी लिपि के कुछ पश्चिमी प्रदेशों को छोड़कर समस्त एशिया पर उसका प्रभाव है और बौद्ध जगत् तो मुक्त कंठ से इसे अपनाता ही है। भारत की सभी लिपियों की वर्णव्यवस्था एक है, सभी एक ही की संतान हैं और सभी प्रांतों में नागरी का कुछ न कुछ प्रचार भी है । तात्पर्य यह $