पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४१

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राष्ट्रभाषा मीर को भी 'फारसी तबीयत से हिंदी शेर कहना पड़ा और उस्ताद सौदा ने तो जोम में आकर यह घोषणा ही कर डाली- "गर हो कशिशे शाहे खुरासान तो सौदा। सिजदा न करूँ हिंद की नापाक जमी पर ।" कहाँ तो वह दिन था कि अलाउद्दीन खिलजी के दरबार अमीर खुसरो हिंदु को बहिश्त कह जाते थे और कहाँ उर्दू के कारनामों से वह दिन आ गया कि हिंदु नापाक हो गया और वहाँ सिजदा करना भी कुम समझा गया! फिर भी यदि यही उर्दू सर तेजबहादुर स को मादरी जनान और नापाक हिंद की मुल्की ज़बान है तो हमें विवश हो कहना पड़ेगा कि अब राष्ट्रीयता की खोज के लिये बिस्तर को झाड़ा चाहिए। ऐसे तो वह उर्दू में कहीं नज़र नहीं आती। स्मरण रहे, यह बह पुण्यभूमि है जहाँ उर्दू के बाबा श्रादम को शरण मिली थी और वह लोक है जिसके लिये देवता भी तरसा करते हैं। सौदा और जिन्नाह अदि इसे नापाक समझते और पाक करने की चिंता में हैं तो पहले अपने दिमाग में इसलाम की सूई लगवा लें और फिर कहें कि अल्लाह का आदेश क्या है और क्या है किसी काजी का फतवा । नहीं, उर्दू की पाकिस्तानी चल महीं सकती, हाँ हत्या केवल राष्ट्र का खेत भले ही खाती रहे। उर्दू जन्म से ही जिस अभारतीयता को लेकर उठी है वह उसके रोम रोम में इतनी समा चुकी है कि अब उसके भारतीय १-खिंचाव । तिबीयत से फारसी की जो मैंने हिंदी शेर कहे। सारे दुरुक बच्चे जालिम अब पढ़ते हैं ईरान के बीच ।