पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४०

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राष्ट्रभाषा पर विचार ३० संबुल जो कभी देखी न थीं, उनकी तारीफ़ करने लगे। रुस्तम और असफंदयार की बहादुरी, कोह' अलवंद और बीसतून की अलंदी, जैहूँ सैहूँ की खानी ने यह तूफान उठाया कि अर्जुन की बहादुरी, हिमा- लय की हरी हरी पहाड़ियाँ, बर्फ से भरी चोटियाँ और गंगा जमुना की खानी को बिल्कुल रोक दिया ।" (चज्मे आजाद का दीवाचा, पृ०१४) अस्तु, अर्थ की दृष्टि से तो उर्दू में यह परिवर्तन हुआ कि उसमें कहीं हिंदीपन रह ही न गया और गिरा की दृष्टि से भी उसकी कुछ ऐसी रुचि हुई कि हिंदी पूरत्रियों की भाषा समझी गई और दक्खिनी भी तुच्छ समझी गई। मौलवी मु० बाकर आगाह को उर्दू भाती नहीं थी किंतु उन्हीं के शिष्य मौलाना 'नामी' की, उर्दू के प्रचार से, दशा यह है कि उनको अपनी जन्मभाषा में मज़ा ही नहीं आता और किस बेहयाई से कह जाते हैं- "है इस मसनवी की ज़बाँ रेखता अरव और अजम से है अामे- खता। नहीं सिर्फ उर्दू मगर है अयाँ" , जबाने सुलैमान हिंदोस्ताँ । अगर बोलता ठेठ हिंदी फलाम, तो भाका था वह पुरबियों का तमाम । जबाने दकन में नहीं मैं कहा, कि है वह ज़वाँ भी निपट बेमजा" (मद्रास में उर्दू, पृ०७५) सारांश यह कि अब उक्त उर्दू-अंजुमन की कृपा से देश में वह समय आ गया जब दरबार की बानी उर्दू हो गई और क्या भाषा और क्या भाव सभी विलायती हो गए। यहाँ तक कि अब उस्ताद १-पहाड़ । २-नाति । ३-ईरान । ४-मिश्रित । ५-ग्रकट । ६-वादरहित।