पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/४

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लिखी हिंदी राजभाषा स्वीकृत हो चुकी है, परंतु अनेक लोगों के मुख से विदेशी भाषा अँगरेजी को ही, जो हमारी विगत परतंत्रता का अवशेष चिह्न है, राजभाषा बनाने की गुहार लग रही है। इस वातावरण में प्रस्तुत रचना में प्रदर्शित हिंदी की शक्ति और संघर्षों के बीच पनपते रहने की उसकी क्षमता का प्रभावशाली निदर्शन हिंदीप्रेसियों को प्रेरणादायक सिद्ध होगा, ऐसा हमारा विश्वास है । इस दृष्टि से इसकी उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है। प्रस्तुत संग्रह में कुछ निबंधों के साथ टिप्पणियाँ श्रावश्यक थीं, क्योंकि आज के कितने ही पाठक उस काल के वातावरण और परिस्थि- तियों से भिन न होंगे जिस काल में ये लिखे गए थे। परंतु पांडेय जी की अस्वस्थता के कारण ये टिप्पणियाँ प्रस्तुत संस्करण में न जा सकी, साथ ही पांडेय जी की अस्वस्थता के कारण भाषा तथा इसके प्रूफ संशोधन में भी कुछ त्रुटियाँ रह गई हैं। इन त्रुटियों के लिये हमें खेद है परंतु परिस्थितियों ने विवश कर दिया। अगले संस्करण में उन्हें ठीक कर दिया जाएगा। श्राशा है पाठक इसे पूर्ववत् अपनाकर हमारा उत्साह बढ़ाएँगे। दुर्गाकुंड, वाराणसी २-१२-५७ } श्रीकृष्णलाल साहित्य मंत्री