पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रभाषा पर विचार मान प्रायः परस्पर बातचीत में हिंदुस्तानी की अपेक्षा अवधी का ही कहीं अधिक व्यवहार करते हैं। यह भी एक ऐसा घोर सत्य है जिसकी उपेक्षा हो नहीं सकती, और उर्दू के प्रसार का श्रेय बिहार को नहीं दिया जा सकता। परंतु 'हिंदुस्तानी रस्मखत' के इस प्रयोग ने इतना तो स्पष्ट ही कर दिया कि हिंदुस्तानी की छाप से किस चहेती का सिक्का चल रहा है। इतने पर भी जो लोग हिंदुस्तानी हिंदुस्तानी चिल्ला रहे हैं उनकी बुद्धि को क्या कहा जाय ? हिंदुस्तानी तो उन्हें डुबाकर ही छोड़ेगी! प्रायः लोग कहा करते हैं कि हिंदुस्तानी की चिंता क्यों की जाय ? वह तो बिना खर की आग की भाँति आप ही भभककर बुझ जायगी और हम राष्ट्र के मार्ग के रोड़े भी न कहे जायँगे। ठीक है, परंतु हिंदुस्तानी को ईंधन की कमी नहीं है। सारी राष्ट्रीयता उसी में झोंकी जा रही है और वह उसी प्रकार देश में फैलाई जा रही है जिस प्रकार की उर्दू फैलाई गई थी। कोई भी बनावटी भाषा किस प्रकार साहित्य की भाषा बनाई जाती है इसका सब से बढ़िया नमूना उर्दू ही है । उर्दू मुहम्मदशाह रँगीले के शासन में किस प्रकार बनी, इसका संकेत पहले किया जा चुका है। यहाँ उसको प्रचार-कला पर ध्यान दीजिए !. नवाब सैयद नसीर हुसैन खाँ 'खयाल ने स्पष्ट लिख दिया है- उमद्तुमुल्क ने और उमरा के मशविरा' से देहली में एक उर्दू अंजुमन कायम की । उसके जलसे होते । ज़बान के मसले छिड़ते । चीज़ों के उर्दू नाम रक्खे जाते। लफ़जी और मुहावरों पर बहसें होती और बड़े रगड़ों-झगड़ों और छानबीन के बाद अंजुमन के दफ्तर में वह तहकीकशुदा अल्फ़ाज़ व मुहावरात कलमबंद होकर महफ़ ज़ १-परामर्श । २-~परिशोधित ।