पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३४५

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राष्ट्रभाषा में दीलवाल महत्व मिले । संभव है कि इसके लिये राष्ट्र की भाषा पत्ताल फिर से हो और फिर से हो राज्यनिर्माण भी। अभी तक प्रमुख रूप से हमारे सामने शासन ही रहा है, अब कुछ साहित्यकार त भी कह लेना है, परंतु उससे कुछ कह लेने के पहले निवेदन कर देना है विधायको' ले यह कि कृपया एक विधान इस आशय का बनवा दें कि यदि कोई प्रकाशन वा ग्रंथ लेखक के कत्तमी निजी हस्ताक्षर के बिना विक्री के रूप में पाया गया तो विकता तथा प्रकाशक इंड के भागी होंगे ! इससे साहि- त्यकार को एक प्रकार का अभयदान मिल जाएगा और प्रकाशक लेखक को पुस्तक की संख्या में धोखा न दे सकेगा, दोनों का व्यापार साधु और विश्वासपूर्ण होगा। 'समा की दृष्टि में हिंदी की वर्तनी और उसके 'ब्याकरण पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। साशा है इस कार्य में भी विद्वानों की सहायता उसे प्राप्त होगी और लोग अपने सुझाव देने में संकोच न करेंगे। पराधीनता का अभ्यास अत्यविक हो गया है, इसका परिणाम यह होता है कि हम स्वयं कार्य करते नहीं, हाँ कराने पर कर अवश्य देते हैं। श्रात्मविश्वास का भी हममें अभाव हो गया है। इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि हम उतना भी नागरी' को नहीं अपना रहे हैं जितना अपनाने में कोई क्षति नहीं, कोई बाधा नहीं । नागरी में तार दिया जा सकता है पर प्रतिदिन दिया जाता है कितना ? नगरी में पता लिखा जा सकता है पर समझा जाता है कि पत्र ठीक से पहुँचता है अंगरेजी पते में ही। भाव यह कि सजग, सावधान और लचेष्ट्र होने की आवश्यकता है। आत्मचेतन