राष्ट्रभाषा पर विचार प्रदेश की क्षेत्रीय भाषा' तो उर्दू है। निदान उर्दू की इस माँग से सबको सजग करना चाहिए और स्पष्ट कह देना चाहिए कि भारत' में पाकिस्तान' के 'उपनिवेश' की आवश्यकता नहीं। हाँ, उर्दू से रक्षण का प्रश्न अवश्य है । उस उर्दू के रक्षण का जो पाकिस्तानी' नही हिंदुस्तानी है। सो हिंदी के साहित्यकार देशकाल के विचार से पात्रानुसार उसका भी व्यवहार करते हैं और उसे भी हिंदी की एक शैली समझते हैं. परंतु उक्त शैली को महत्व इसलिये नहीं देते कि उसका यहाँ की किसी भी भाषा की किसी भी शैली से मेल नहीं, उसका तो नाता विदेश से है न ? राजबल से उर्दू को किस क्षेत्र का राज्य मिलेगा, इसकी मीमांसा से लाभ क्या ? उसकी उचित माँग पर उचित ध्यान दिया जाएगा, इसमें संदेह नहीं । उसका दिल दुखाना हमको इष्ट नहीं । यदि कुछ लोगों को उसके अध्ययन का आग्रह हो और उनकी संख्या पर्याप्त हो तो यह अधिकार उन्हें प्राप्त हो सकता है और वही स्थान प्राप्त हो सकता है जो किसी भाषा को दूसरी भाषा के क्षेत्र में प्राप्त होता । रही राष्ट्रभाषा की स्थिति सो हमारी समझ में तो यही आता है कि इस पद्धति और इस गति से हमारा उद्धार नहीं । उलटे क्षति की संभावना अधिक है। इससे राष्ट्रभाषा की शक्ति और क्षमता में संदेह उत्पन्न होता है और राष्ट्रभाषा के सरकारी अगुआ पीछे खिसकते दिखाई देते हैं। इसलिये होना यह चाहिए कि केंद्र में एक अलग राष्ट्रभाषा मंत्रालय की स्वतंत्र स्थापना हो और उसका संचालन एक छानुभवी, योग्य और साहित्य मर्मज्ञ मंत्री के हाथ में हो जिससे वह भाषा की प्रकृति और प्रवृत्ति को देखकर ही उसके विकास का प्रबंध करे । प्रकृति की दृष्टि से भारत की भाषाओं में चाहे जितनी विभिन्नता हो किंतु प्रवृत्ति की दृष्टि से उनमें गहरी एकता है। इस एकता को परखे
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