पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३३८

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राष्ट्रभाषा पर विचार वस्तुतः यह वहाँ की भी बोली नहीं है । इसके विकास का इति- हास ही कुछ और है तो भी तोष के लिए उनको 'हिंदीवाला' मान लीजिए। फिर कहिए कि 'पूरब' के लोग इस भाषा को सीखते हैं वा नहीं ? हिंदी का सीखना कठिन है तो सबसे अधिक बंगाली को। वह अपनी बोली के सहारे हिंदी को सीखना चाहता है। इसी से उसे असुविधा है। पर द्रविड़ की स्थिति कुछ और है । वह नये सिरे से हिंदी सीखता है, इसी से उस पर अधिकार भी शीघ्र प्राप्त कर लेता है । जो हो, भाषाशास्त्र की दृष्टि से संस्कृत और अँगरेजी भी हिंदी के ही अधिक निकट है। क्योंकि तीनों एक ही वंश की मानी जाती हैं। अतएव इस तर्क-वितर्क में न पड़कर उस 'विचार सागर' का उपदेश ग्रहण करना है जिसके तमिल अनुवाद का पाठ वहाँ के मठों में आज भी होता है । उसके रचयिता बावा निश्चलदास का कहना है-- सांख्य न्याय मैं श्रम कियो, पढ़ि व्याकरण अशेष । पढ़े ग्रंथ अद्वैत के, रह्यो न एकौ शेष ।। कठिन जु और निबंध हैं, जिनमें मत के भेद । श्रम ते अवगाहन किये, निश्चलदास सवेद ॥ नित यह भाषा-ग्रंथ किया, रंच न उपजी लाज । तामैं यह इक हेतु है, दयाधर्म सिरताज ।। बस, इसी दयाधर्म की प्रेरणा से 'लोक' पर दया करके संस्कृत के विज्ञ पंडितों ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद दिया तथा दिलाया है। इसमें लज्जा की कोई बात नहीं, यही सबका लोकधर्म है।