पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३३७

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दक्षिण भारत का प्रश्न करती हैं ? क्यों न करें ? वह 'गिरिराज कुमारी और शिवपत्नी भी तो हैं ? उत्तर से दक्षिण तक उसी शक्ति उसी शिव-पार्वती का तो प्रसार है ? तो फिर दक्षिण का उत्तर से विरोध कैसा ? अधिक क्या आपका 'संगम' साहित्य भी तो संस्कृत से अछूता नहीं ? लोग तो उस 'संगम' शब्द को संघ शब्द का ही अपभ्रंश समझते हैं। तमिल साहित्य चाहे जितना भी पुराना हो पर आर्य अगस्त के पहले की उसकी स्थिति क्या ? जो कुछ उपलब्ध है उससे तो यह सिद्ध नहीं होता कि किसी उत्तर के प्राणी से तमिल साहित्य का कभी कोई अहित हुआ १ सच तो यह है कि 'प्राकृत' की स्थिति का यथार्थ बोध न होने के कारण ही आज तमिल' को लेकर इतना ऊहापोह है, अन्यथा कौन नहीं जानता कि बौद्ध और जैन के प्राकृत-प्रेम के साथ ही तमिल का भी विकास है। कुछ भी हो, कहना हमारा यह है कि हम कभी आप अथवा आपकी भाषा अथवा आपके रूप में अपनी ही भाषा को नीचा दिखाना नहीं चाहते। हम तो 'मधुकर सरिस संत गुनग्राही' के उपासक हैं, और मधुकरी हमारी वृत्ति । जी हाँ, ऐसे भी लोग हैं जो हिंदी को मानते तो हैं पर चाहते नहीं । उनके न चाहने का कारण स्पष्ट है। उनकी पैनी प्रतिमा पहले से ही परख लेती है हिंदी हुई नहीं कि हिंदीवाले मीर हुए। जब तक अंगरेजी है सब के लिए समान है। हिंदी हुई तो हिंदी वाले को तो सीखना न रह जायगा और वह नौकरी की परीक्षा में सब को पछाड़ देगा। इस न्याय से यहाँ की कोई भाषा यदि राष्ट्रभाषा हो सकती है वो वह संस्कृत ही है। संस्कृत के संबंध में कुछ कहने के पहले जता यह देना है कि यह धारणा ठीक नहीं। वास्तव में हिंदीवाले हैं कितने जो धुट्टी के साथ इस भाषा को पीते हैं। दिल्ली और मेरठ का नाम ही भर लिया जाता है।