पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३३३

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दक्षिण भारत का प्रश्न ३२३ 'पिल्ल को यहाँ के 'पिल्ला' में अपमान दिखाई देगा। अस्तु, आपसे निवेदन यही करना है कि आप और कुछ भले ही न करें, पर इतना तो अवश्य करें कि आपकी किसी 'इस पट से उस पट' से किसी हिंदी का पासा ही न चितपट हो जाय । समय के अनुसार चल कर 'दक्षिण' को भी अपने अध्ययन का विषय बनाएँ और तब देखें कि आप की हिंदी में क्या नहीं है, किसका नहीं है। कोई आज भी आप की हिंदी का विरोध भले ही कर ले, पर सच पूछिए तो कभी कोई उससे मुँह नहीं फेर सकता। एक समय था कि तुलसीदास के प्रसंग में शिवकांची और विष्णुकांची का उल्लेख हुआ, आज समय है 'कांची' पर काव्य रचने का। आज इस प्रकार के उदाहरण से कटुता बढ़ेगी। लोग इसको ठीक भी नहीं समझते । श्राशय यह कि लिखें तो सोच समझ और जान-बूझ कर लिखें। कृपा होगी, राष्ट्र का कल्याण होगा, यदि दक्षिण के होनहार लेखक को प्रोत्साहन दे बढ़ने का अवसर दें; भाषा को शोधकर साध भाषा लिखने की प्रेरणा दें। नहीं तो आपके मुँह खोलने से लाभ नहीं, उलटी,हानि अवश्य है। कलाकार क्या कर रहेगा, इसका कहना कुछ कठिन है। किंतु पुरातत्त्व के प्रेमी से इतना तो कहा ही जा सकता है कि जब कभी आप कहीं किसी खंडहर या टूटे-फूटे मंदिर से कुछ जानने सुनने जायँ तो कृपा कर उस मानव को न भूल जायें जो न जाने कितने दिनों से उसका पड़ोसी है और उसी की भाँति, क्या उससे कहीं अधिक समय के उतार-चढ़ाव को देखता चला आ रहा है। लार्ड कर्जन की कृपा से जिनकी रक्षा हो गई उनकी तो हो रही है। पर जनता ने अभी उनके महत्त्व को नहीं समझा। समझती भी कैसे ? उसकी भाषा में कोई बात भी होती। कहीं-