पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३३

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राष्ट्रभाषा कहना न होगा कि अबू रैहाँ वेरूनी ने 'नागर' और 'अर्द्ध- नागरी लिपि का जो क्षेत्र बताया है वह अपभ्रंश का ही क्षेत्र है इसी को यदि हम अपने यहाँ के ढंग पर कहना चाहें तो सरलता से कह सकते हैं कि नागरी नागरापभ्रंश की लिपि है तो अर्द्ध- नागरी ब्राचड़ की । कारण कि श्री मार्कंडेय का कहना है- सिन्धुदेशोद्भवो ब्राचडोऽपभ्रंशः । अस्य च यत्र विशेषलक्षणं नास्ति तन्नागरात् ज्ञेयं । (अष्टादश पाद) अल्बेस्नी ने उसी ग्रंथ (किताब उल हिंदी ) में भाषा के भी दो रूपों का उल्लेख किया है। उसने एक को तो शिष्ट, व्यवस्थित और समृद्ध माना है पर दूसरे के बारे में वह कहता है कि उसकी अवहेलना होती है और उसका कोई व्याकरण भी नहीं है। संभवतः इस उपेक्षित भाषा से उसका तात्पर्य अपभ्रंश से ही है। उसने अपनी पुस्तक में जो हिंदी शब्द दिए हैं वे अपभ्रंश के ही प्रतीत होते हैं । सारांश यह कि अल्बेरुनी की गवाही से भी यही सिद्ध होता है कि वस्तुतः नागरी और कुछ नहीं नागर भाषा और नागर लिपि ही है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि गुर्जर- प्रतिहार शासकों ने मध्यदेश में नागरी का प्रचार किया और अपने उत्कीर्ण लेखों में उसका उपयोग किया। थोड़े में इतना ही पर्याप्त है कि नागरी भाषा और नागरी लिपि का प्रचार साथ-साथ हुआ। नागर किस प्रकार समूचे देश में फैल गये इसका संकेत पहले हो चुका है । उन्हीं के उद्योग से उनकी भाषा भी देशव्यापक हुई और उनकी लिपि भी। नागरी का नाम लेते-लेते एक बार फिर गुर्जर और टक्क सामने आ गए। कारण कि नागरी का सबसे प्राचीन उपलब्ध रूप गुजरात के गुर्जरवंशी राजा जयभट्ट (तृतीय) के कलचुरि