पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२८

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राष्ट्रभाषा पर विचार की 'भाषा' के रूप में देखना चाहते हैं कुछ 'देशभाषा' के रूप में नहीं । अपने देश में प्रत्येक देशभाषा का अपना राज्य है और उस राज्य की वही राजभाषा भी है। पर उस देश की राजभाषा है हिंदी ही ठीक वैसे ही जैसे उसका राज है हिंद अथवा भारतवर्ष । भारत का नाता जिसे मान्य है वह भारत की वाणी की उपेक्षा कैसे कर सकता है और साथ ही भारत का जिसे अभिमान है वह उसके किसी अंग को कैसे छोड़ सकता है ? भले ही कोई सब का दर्शन न करे पर चाह तो सब के दर्शन की जी में बनी ही रहे। ऐसे ही, भले ही कोई सभी देशभाषाओं को न सीख सके, पर सबको सीखने की लालसा तो कभी न घटे । 'भाषा' अर्थात् राष्ट्रभाषा की शिक्षा के बिना तो किसी की शिक्षा पूरी ही न होगी और उसका जीवन दस के बीच में अधूरा ही समझा जायगा । निदान उसकी शिक्षा तो सब को दी जायगी ही। कब दी जायगी, इसका निर्णय उसका राज्य करेगा, राष्ट्र नहीं। राष्ट्र ने तो निर्देश भर कर दिया है। संमेलन का कर्तव्य भारत की राष्ट्रभाषा का प्रश्न सुलझ गया है। तो भी उर्दू अथवा हिंदुस्तानी का दम अब भी कहीं कहीं भरा जा रहा है। यहाँ तक कि दक्षिण भारत हिंदुस्तानी प्रचार सभा' भी उससे मुक्त होने में आगापीछा कर रही है। यद्यपि आज भी उसका वैधा- निक नाम है 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' ही, तो भी कतिपय गुरुजनों के कारण चल रहा है उसका नाम 'हिंदुस्तानी' की छाप से ही। हम इसे उसकी विवशता ही समझते हैं। समझने का कारण यह है कि जब विधान के द्वारा 'हिंदी' की घोषणा हो गई तब 'हिंदुस्तानी' नाम के पीछे सत