पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२७

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दक्षिण भारत का प्रश्न सीधा अर्थ यही है कि प्रधानता 'वेद' की रहे वा 'संत' की। उपासना में प्रथम स्थान वेदवाणी को मिले अथवा संतवाणी को। यही प्रश्न भाषा के क्षेत्र में यह रूप धारण कर सकता है क्या, कर लिया है कि हिंदी को प्रथम स्थान दिया जाय या तमिल. को। हमारी समझ में इसे बौद्धमत ने लोकदृष्टि से बहुत पहले स्पष्ट किया तथा 'महायान' और हीनयान के रूप में व्यक्त किया। यान महा हो या हीन हो पर है तो यान ही न! जब उस समय हीनयान का क्षेत्र दक्षिण ही अधिक रहा और वह दक्षिण मत के रूप में प्रतिष्ठित रहा तब आज के उदार युग में हम इसकी अवहेलना क्यों करें और क्यों न मान लें कि द्रविड़ के क्षेत्र में तमिल पहले फिर बाद में हिंदी स्वभाषा पहले फिर राष्ट्रभाषा । 'स्वभाषा' का प्रयोग आज की हवा को देखकर किया गया है और उसी की प्रेरणा से किया गया है राष्ट्रभाषा का प्रयोग भी। नहीं तो सीधे से कह दिया जाता 'देशभाषा' पहले और फिर बाद में 'भाषा' । स्मरण रहे 'भाषा' का प्रयोग यहाँ इसी अर्थ में होता था और जब कभी केवल 'भाषा' का नाम लिया जाता था तब उससे प्रचलित राष्ट्रभाषा का ही बोध होता था। किंतु यहाँ भी हमारा रोना वही है। वहीं अंगरेजी के प्रताप से हमें 'देशभाषा' का नाम भूल गया और हम प्रांतभाषा' के मुरीद हो गए । आवश्यकता है आज इस तथ्य को समझ लेने की। जहाँ आपने समझ लिया कि तमिलनाडु एक देश है और तमिल एक देश-भाषा, वहीं सारा झगड़ा दूर हुआ और सब मानिये उसी दिन विड़िस्तान को भी समुद्रलाभ हुआ । भाषा के आधार पर देश बने और देश के अनुसार मेष बने तो कोई बात नहीं पर हमारी 'भाषा' रहे और उसके द्वारा किस 'आत्मा' का विकास हो, कुछ इसकी भी सुधि रहे। हम 'हिंदी' जो 'तमिलनाडु