पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२५

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दक्षिण भारत का प्रश्न परम प्रबीन, बीन मधुर बजावै, गाचे, नेह उपजावै यों रिझावै पति-संगिनी । चातुर सुभाइ, बंक भौंहन दिखाइ 'देव' बिंगन अलिंगन बतावति तिलंगिनी । 'तिलंगिनी' का यह कला-प्रेम धन्य है कि इसका विलासी 'पति-संग' में ही है। 'देव' के इस 'पति-संगिनी' प्रयोग को न भूलिये नहीं तो कला कलंकिनी हो जायगी। वल्लभकुल ने ब्रजभाषा को जो महत्त्व दिया सो तो हिंदी के सामने है, पर उस कला का स्रोत आज हममें से कितनों के सामने है ? हम ब्रजभाषा के 'अष्टछाप' को तो जानते हैं, पर तिलंगी वा तेलुगु के 'अष्टदिग्गज का कितनों को पता है। कहने का तात्पर्य यह कि जिस ऊपरी रूप में संस्कृति का अर्थ आज लिया जा रहा है उस दृष्टि से 'द्रविडिस्तान' के भीतर 'तमिलनाडु के अतिरिक्त और कोई भूभाग नहीं आ सकता। तमिलनाडु का अर्थ भी वास्तव में 'द्रविड देश' ही है। ध्यान देने की बात है कि तमिलनाडु की सीमा वेंकटगिरि के आगे कभी नहीं मानी गई है। "शिलप्पदिकारम्' जैसे तमिल भाषा के प्रौढ़ और सिद्ध महाकाव्य में भी उसकी सीमा यही है। कन्याकुमारी से बालानाथ तक ही द्रविड़ देश का प्रसार है। अतएव 'द्रविद्धि- स्तान की सीमा किस आधार पर आगे बढ़ सकती है ? द्रविडिस्तानी के सामने तीन अन प्रधान हैं। वह कभी 'आर्य' और 'द्रविड़ को लेकर खड़ा होता है तो कभी 'ब्राह्मण को । साथ ही उसके सामने 'उत्तर' और 'दक्षिण का भेद भी है ही। हिंदी का थोड़ा बहुत विरोध जो जहाँ तहाँ कभी कभी हो जाता है उसका कारण उसका 'आर्य' और 'ब्राह्मण होना समझा जाता