पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२४

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राष्ट्रभाषा पर विचार छुड़ाना चाहते हैं कारण उनकी दृष्टि से संस्कृति और शेष लोगों की दृष्टि में 'राजनीति' है। किंतु सच पूछिये तो दोनों के मूल में है अँगरेजी सूझ बूझ की दासता ही। अगरेजी तो चला गया पर उसकी सीख नहीं गई। उसकी नीति अब रंग ला रही है। फिर भी प्रायः लोग उसकी ओर से कुछ उदासीन हैं और इसे चुनाव वा लीडरी का ही चक्कर समझते हैं। द्रविडिस्तान की भावना 'द्रविडिस्तान' का नाम तो बहुत सुनने में आ रहा है, पर वस्तुतः द्रविडिस्तान है क्या ? कहाँ तक उसकी सीमा है ? उत्तर किसी के पास नहीं, नाम सब के पास है। काम यों ही चल रहा । पर चलते-चलते अनर्थ भी कुछ कम नहीं हो सकता। अतः इसका रहस्य भी खुल जाना चाहिये । सो थोड़े में हम यही कहना चाहते हैं कि परंपरा से 'द्रविड़' का अर्थ वह नहीं जो आज अँगरेजी की कृपा से लगाया जाता है। 'द्रविड़ के भीतर 'केरल' की गणना कभी होती थी, पर 'न' और 'कर्णाटक' की कभी नहीं। हाँ, द्रविड़ वर्ग की सीमा अवश्य ही महाराष्ट्र और गुजरात को भी अपने भीतर समेट लेती है और फलतः गुजरात और महाराष्ट्र के ब्राह्मण भी 'पंचद्रविड़ के भीतर ही गिने जाते हैं। आंध्र और कर्णाटक को भी 'द्रविड़ के भीतर गिनने का पाट मिला है श्री महाप्रभु अँगरेज से ही । 'देव' का ही तो यह भी कहना है- साँवरी सुघर नारि महा सुकुमारी सोहै, मोहै मन मोहन को मदन-तरंगनी । अनगने गुनन के गरव गहीर मति, निपुन सँगत-गीत प्रसंगिनी । सरस