पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२०

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राष्ट्रभाषा पर विचार ३१० अपने अपने ढङ्ग से कुछ न कुछ इसे कर भी सकते हैं। शासन की ओर से रोका जा सकता है कि हमारी कोई भी हस्तलिखित पोथी विदेश में न जाय । पर इसी से क्या हमारा काम बन गया ? क्या स्वदेश के लोगों ने ही अपने पवित्र हाथों में ही अपने पूर्वजों की अपूर्व कमाई पर पानी नहीं फेर दिया है ? कल्याण हो उन विदेशियों और मंगल हो उन विद्वानों का जिनकी महती कृपा और शोध से फिर हमें आँख मिली और फिर हम अपने प्राचीन लेखों को पढ़ने में समर्थ हुए । जहाँ दुख होता है यह जानकर कि हमारे अच्छे, अनुपम और अनूठे ग्रंथ विदेशों में चले गए वहीं यह सुख भी होता है कि यहाँ न सही, वहाँ तो हैं। सुख सुरक्षित तो हैं। यहाँ होते तो उनकी क्या गति होती, इसे कौन कहे ! अवश्य ही कितनों को तो हमारी भांडी भावना के कारण गंगालाम मिल गया होता, और कितने ही कूटकुटा कर डलिया बन गए होते, और कुछ तो पंसारी के घर पहुँच कर मसाला तंबाकू आदि न जाने क्या क्या बाँधने के काम में आते। और जो कभी बड़े आदर से बेठन में बाँध कर रखे जाते थे उन्हीं से न जाने किस किस के बेठन का काम लिया जाता। सरांश यह कि उनकी दुर्गति होती और हमारी विद्या तथा कला का विनाश होता। किंतु फिर भी हमारी वसुंधरा में अभी बहुत कुछ शेष है। बीजक समझ कर आप डरें वा पैसे के लोभ में न पड़ें। नहीं पैसे से लेकर मूर्ति तक, ताइपन से ले कर ताड़पत्र तक सभी प्रकार के प्राचीन पदार्थों की चिंता करें और उनका संग्रह करें । स्वयं रखने के फेर में न पड़ किसी प्रतिष्ठित संस्था को दें, सरकार को दें, चाहें तो किसी विश्वस्त विद्वान को भी दें, पर किसी व्यक्ति को न देना ही अच्छा है। हाँ भूलकर भी किसी बनिया को न दें, किसी व्यापारी को न दें और न दें किसी गंगामैया की जलधारा