पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राष्ट्रभाषा पर विचार अच्छा तो यह भूमिका ५ नवम्बर सन् १६२६ को लिखी गई। इसीसे इसमें थोड़ी सी सचाई भी आ गई है नहीं तो अब कौन मुसलमान ऐसा लिख सकता है ? इसमें भी 'अब भी बतौर रियाया' तथा 'दिदू रियासतों के खास हुक्म के सबब' से जो काम लिया गया है वह भुलाने के योग्य नहीं है । इसमें उर्दू का तो कहीं नाम तक नहीं आया है पर विवशता के कारण माना यही गया है कि हिंदी यानी नागरी जवान' ही हिंद या हिंदुस्तान की राष्ट्र- भाषा है, कुछ हिंदी यानी हिंदुस्तानी वा उर्दू नहीं। तो क्या हिंदी के अभिमानी अब भी अचेत ही रहेंगे और नागरी का व्यवहार भाषा के अर्थ में न करेंगे? डाक्टर मार्शल ने नागरी का संबंध जो उज्जैन से जोड़ा है उसका भी कुछ कारण है। नागरी भाषा एवं नागरी लिपि का विकास किस ढब से हुआ इसकी एकाध झलक भी मिल जाय तो वहुत समझिए अन्यथा भागते समय से कितना छीना जा सकता है ? लीजिए एक विदेशी मुसलिम भी, जो सुल्तान महमूद गजनवी का समयुगी है, आपके पक्ष में बोल रहा है। वह कहता है- मालवा के हुदूद में एक खत जारी है जिसको नागर कहते हैं और इसी के बाद प्रर्दनागरी खत है यानी श्राधा नागर क्योंकि यह नागर और दूसरे खतों से मिला-जुला है और यह भातिया और कच्छ सिंध में मुरव्वज है। इसके बाद मलवारी खत है जो मलशा यानी बनूबी सिंघ में रायज है। (नुकू.शे सुलैमानी, जामिया मिल्लिया देहली सन् १९३६, पृ० २३) १- सीमा। २-लिपि । ३–दक्षिणी ।