पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१९

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राष्ट्रभाषा की उलझन पावन कर्तव्य नहीं है कि हम भाषा-पड़ताल की जाँच करें और भारत-सरकार को विवश करें कि वह अवश्य इसे ठीक कराए। अन्यथा भाषा के क्षेत्र का कलह मिटता नहीं दिखाई देता। विध- बेलि से अमियफल की आशा व्यर्थ है। होगा। हो सकता है सब कुछ हो, हो सकता है अभी कुछ भी न हो। किंतु कुछ भी क्यों न हो राष्ट्रभाषा के प्रेमियों को तो प्रत्येक दशा में कुछ करना है। यह करना भी। प्रकार काहै एक तो संस्कार का और दूसरा संग्रह का । संस्कार के विषय में सार- रूप से यही कहना है कि राष्ट्रभाषा का संस्कार हो जाना चाहिए और उसका व्यवस्थित रूप ही सबके सामने आना चाहिए । इस विषय में कुछ उर्दू के इतिहास से भी सीखना होगा और दिल्ली और लखनऊ के भेद को मिटा कर सभी प्रकार से एकरूपता लाने का सफल प्रयत्न करना होगा। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि जैसे दिल्ली ने बादशाही के जोम में आकर उर्दू की भाषा हिंदी से अलग बना ली वैसे ही लखनऊ ने भी ताव में आकर अपनी श्रान दिखाने के लिये अपनी अलग उर्दू बना ली । दिल्ली ने कहा- मैंने समझा। दिल्ली ने कहा- यह बात करनी होगी;' तो लखनऊ ने कहा- यह बात करना होगा।' भाव यह है कि दोनों भिड़ गए और उर्दू भिड़ने भिड़ाने में रह गई। इसी की भाषा बन गई। हिंदी में भी यही भेद घुस आया और यहाँ भी इसका अखाड़ा गरम होता दिखाई देता है। अतः विद्वानों का ध्यान शीघ्र इधर भी जाना चाहिए और देखना यह चाहिए कि मध्यप्रदेश का शासन इसका अनुशासन किस रूप में और कैसा कर रहा है। दूसरा प्रश्न संग्रह का है। यह काम सभी का है और सभी