पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१७

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राष्ट्रभाषा की उलझन ३०७ के क्षेत्र में साम्राज्यवाद वा प्रांतवाद का बाप है। गत कई वर्षों से यह जन बराबर कहता तथा दिखाता आ रहा है कि सर जार्ज ग्रियर्सन ने भाषा की पड़ताल अँगरेजी शासन की दृढ़ता के लिये उसी के प्रबंध से की। भला सोचिए तो सही इस पड़ताल से हैदराबाद और मैसूर को क्यों अलग कर दिया गया। यदि देशी राज्य होने के कारण भारत सरकार ने उन्हें नहीं छेड़ा तो मद्रास प्रांत की द्रविड़ भाषाएँ क्यों पड़ताल से अलग रह गई। एक नहीं अनेकों प्रमाण ऐसे हैं जो ललकार कर कहते हैं कि ग्रियर्सन साहब की भाषा पड़ताल नाम मात्र को ही 'लिंग्विस्टिक सर्वे आव इंडिया' है। वस्तुस्थिति तो कुछ और ही है। आप सन् १८५७ की क्रांति पर ध्यान दें और प्रत्यक्ष देखें कि उसकी लीलाभूमि हिंदी की ही भूमि क्यों है और साथ ही यह भी देख लें कि बँगला तथा हिंदी पर ही श्री ग्रियर्सन का इतना कोप क्यों है। हिंदी, हिंदुस्तानी और उर्दू का जाल उक्त 'सर्वे' में किस प्रकार छिपाया गया है इसके दिखाने का भी यह अवसर नहीं। परंतु इतना तो उच्च स्वर से कह ही देना है कि 'नागरी' को भाषा क्षेत्र से हटाकर जार्ज ग्रियर्सन ने जो कार्य किया वह किसी भी राजनीति के पंडित से न हो सका। यदि नागरी को पढ़े-लिखे बावू भी भाषा मानते तो आपही प्रकट हो जाता कि वास्तव में हमारी राष्ट्रभाषा किसी के घर की ठेठ बोली नहीं, वह तो वस्तुतः 'नागर अपभ्रंश की ही नागरी भाषा है जो कम से कम गत सहस्र वर्ष से हमारी राष्ट्रमाता नहीं तो शिष्ट व्यवहार की भाषा है। और इसी प्रतिष्ठा के कारण समस्त राष्ट्र के विचारशील प्राणी सदा से उसके पोषक रहे हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन साहब का जादू हिंदू पर पूरा काम कर गया, पर मुसलमान फिर भी कुछ बचा रहा ! बहुतों को क्या कहें, काँगरेसी सरकार से डाक्टर अंसारी