पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१६

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राष्ट्रभाषा पर विचार के द्वारा हो तो ठीक है। हाँ, सामान्य अथवा जीवनोपयोगी कामकाजी विज्ञान का बोध तो सभी देशभाषाओं के द्वारा कराया जायगा। उसे तो उपयोगी साहित्य का अंग बनाया जायगा। फलतः हमारा कहना है कि हम कल्पना के लोक से उतरकर व्यवहार के क्षेत्र में काम करें और प्रत्यक्ष देख लें कि अंत में हमारा मङ्गल कहाँ है । संक्षेप में हमारा कहना यह है कि शिक्षा के माध्यम पर विचार करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हम काव्य और शास्त्र, कला और शिल्प, विद्या और विज्ञान की महत्ता और मर्यादा को ध्यान में रखकर ही ऐसा करें कुछ होड़ में पड़ कर मोहवंश नहीं । विवेक का अनुरोध और समय का आदेश है कि हम सभी देशभाषाओं को सभी प्रकार से समृद्ध करें और उनके साहित्य को संपन्न बनाएँ । मानव मंगल का कोई अंग ऐसा न रहे जो किसी देशभाषा के साहित्य में प्राप्त न हो। परंतु यही प्रत्येक देशभाषा को संतोष भी हो जाना चाहिए । बुद्धि का विलास और विश्व का क्षेत्र इतना बढ़ गया है और विज्ञान का प्रपंच इतना गूढ़ हो गया है कि इन सबका भेद पाना सब का काम नहीं, इनको राष्ट्रभाषा के द्वारा ही प्राप्त किया जाना संभव तथा हितकर है। इनका अलग अलग बोझ उठाना शक्य और शोभन नहीं। वैसे प्रत्येक देश अपनी स्वतंत्र व्यवस्था अपने राज्य में कर सकता है। उसके अधिकार में हमारा हस्तक्षेप नहीं। उसके हित में हमारा हाथ अवश्य है। हम इसी हित के नाते इतना कह रहे हैं, अन्यथा इस प्रपंच से अपना लाभ क्या ? हाँ, राष्ट्रभाषा के स्वरूप का प्रश्न भी निराला है। रह-रह कर वह उठाया जा रहा है। किंतु इसका कारण भी वही है जो भाषा