पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१५

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राष्ट्रभाषा की उलमन ग्रंथों का सामान्य जीवन और सामान्य भावभूमि से कोई संबंध नहीं। उनकी भाषा निराली होती है जिसको उसी भाषा के बड़े बड़े विद्वान् भी नहीं समझ सकते । डाक्टर चाहे जिस भाषा में लिखे पर वह रहेगी सर्वथा उसी वर्ग की भाषा । अस्तु, समय श्रा गया है कि हम सभी प्रश्नों पर बुद्धि और विवेक के साथ एक- साथ मिलकर विचार करें और देखें कि किस पद्धति पर चलने से हमारा परम हित होगा और लोक तथा परलोक, देश तथा परदेश सभी सधेगा। भाव यह कि भावना या किसी आवेश में आकर स्पर्धा के भाव से कुछ नहीं करना है और शिक्षा का विधान कुछ इस ढङ्ग से कर लेना है जिससे किसी देशभाषा के विकास में बाधा भी न पड़े, और राष्ट्र के निर्माण में कोई अड़चन भी न हो। भारत की प्रार्यभाषाएँ एक दूसरी से इतनी मिलती जुलती हैं कि यदि एक ही लिपि में लिखी जायं और परस्पर अधिक संपर्क में आती रहें तो उनका रहा सहा विभेद भी व्यवहार में बाधक न हो और एक भाषाभाषी दूसरी भाषा को थोड़े से अभ्यास से ही सीख ले। हाँ, द्रविड़वर्ग की भाषाओं की स्थिति कुछ और है, किंतु प्रवृत्ति में उनसे भी मेल है ही। प्रकृति की भिन्नता और प्रवृत्ति की एकता का कारण संस्कृति और संस्कार ही तो है ! परंतु यह भी ध्यान रहे कि तामिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम में सभी प्रकार की उच्च शिक्षा का प्रबंध करना कुछ खेल नहीं है। इतना अर्थ इस प्रकार व्यय कर क्या प्राप्त किया जाय इसका भी ध्यान रखना ही होगा। विज्ञान के क्षेत्र में देशभाषा के द्वारा कार्य करना बहुत महंगा पड़ेगा और लाभ उससे अत्यंत थोड़ा होगा ! अतएव हमारा कहना है कि विज्ञान का पठन पाठन सर्वत्र एक ही भाषा