पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१४

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राष्ट्रभाषा पर विचार गुजराती भारती ही नहीं, द्रमिल-भारती भी कह सकते हैं । कारण, भारती का अर्थ भाषा जो है। इससे सिद्ध हुआ कि कभी हमने इस शब्द को ऐसा अपना लिया कि इसका देशगत भाव ही जाता रहा। तो क्या हिंदी के साथ भी कभी हमारा यह व्यवहार नहीं होगा ? होगा और अवश्य होगा। इसके बिना कल्याण का मार्ग दूसरा कौन होगा ? भला कोई अभागा ऐसा जन्म क्यों लेने लगा कि पढ़-लिख जाने पर वह समस्त राष्ट्र का प्रदीप न बने । निश्चय ही राष्ट्रभाषा की शिक्षा का विधान राष्ट्र की दृष्टि से अनिवार्य होगा और कोई महाविद्यालय या विश्वविद्यालय उससे अलग नहीं रहेगा, यहाँ तक तो स्थिति स्पष्ट है, और यथार्थतः राष्ट्रहित के लिये इतना पर्याप्त भी है। हम इससे अधिक चाहते भी नहीं। किंतु क्या इसी में किसी देशभाषाभाषी का परम लाभ भी है ? जी तो कहता है, नहीं राष्ट्रभाषा और देशभाषा की मर्यादा पर विचार करते समय हमें भूलना न होगा कि 'काव्य' और 'साहित्य का जितना देश काल से लगाव है उतना 'विज्ञान' और 'शास्त्र' का नहीं। निदान मानना पड़ता है कि काव्य और साहित्य में जहाँ उच्च शिक्षा का विधान किसी भी देशभाषा में अत्यंत सरल होगा वहाँ विज्ञान और शास्त्र का अत्यंत कठिन । कारण किसी देशभाषा की किसी प्रकार की अक्षमता अथवा अयोग्यता नहीं। नहीं, सभी देशभाषाएँ प्रायः क्षमता में समान ही हैं और सभी एक ही जीवनस्रोत प्रायः जीवनलाभ ही करती हैं। और यह भी मान लिया गया है कि सांकेतिक वा पारिभाषिक शब्द भी सब के एक ही रहेंगे। ऐसी स्थिति में सुगम, सुष्ठ और सहज यही होगा कि विज्ञान की शिक्षा एक ही भाषा के द्वारा सुलभ होगी। ग्रंथ-निर्माण भी प्रायः एक ही भाषा में होगा। उसका कारण यही है कि ऐसे