पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१२

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३०२ राष्ट्रभाषा पर विचार है। गंगाद्वार, हरद्वार, हरिद्वार और कह लें राष्ट्रद्वार । कारण यह कि गंगा (प्रवाह हर (प्रलय) और हरि ( पालन) का रहस्य ही तो राष्ट्र का प्राण है ? हरि के 'नख' से शिव के शिखा' तक जो प्रवाह व्याप्त है वही नखशिख तो गंगा है ? फिर उसमें अवगाहन कर हम अपने राष्ट्र के उद्धार की क्यों न ठानें और क्यों न राष्ट्रभाषा की बची हुई उलझन को भी चट सुलझा लें। सो प्रत्यक्ष ही है कि प्रत्येक देशभाषा की बाढ़ उसी धारा की बाढ़ है जो गंगा के नाम से तीन मार्गों से हमारे हृदय में बह रही है। आकाश, पाताल और पृथिवी को आसावित करने वाली यह धारा किसी को तप्त कैसे कर सकती है ? निदान हमारा कहना है कि बैंगरेजी के कुसंस्कार से मुक्त हो अपनी परंपरा को परखें और अपनी आँख से अपनी संस्कृति को पहिचान लें फिर देखें कि देश भाषा के अनुसार देश पहले से ही बने हुए हैं, आज केवल आपको उन्हें मान भर लेना है और उसी के अनुसार समय पाकर पाच- रण भी कर लेना है। दूसरा प्रश्न जो भयावह बनता जा रहा है शिक्षा का माध्यम है। उस शिक्षा का माध्यम क्या हो, इसको लेकर विवाद छिड़ गया है और कुछ वितंडा की गंध भी आ रही है। 'वाद' के विषय में अभी-अभी निवेदन किया गया है कि वास्तव में भाषा के क्षेत्र में कोई वाद नहीं है और न अँगरेजी की छाप के अति- रिक्त भाषा के क्षेत्र में कोई साम्राज्यवाद ही है। और यदि कहीं कुछ है भी तो वह निरा जूठन । अँगरेजी दीक्षा का प्रसाद ! अत- एव उसकी चिंता न कर देखिये यह कि हमारी गति हमारी परंपरा और हमारी संस्कृति का अनुरोध और समय की माँग क्या है। सो यह भी स्पष्ट ही है कि भारत की भारती हिंदी ही रहेगी। वह किस रूप में रहेगी, इसी में विवाद है। इसमें संदेह