पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३११

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राष्ट्रभाषा की उलमन चर्चा हाँ, आज के भारत में हिंदी के 'साम्राज्यवाद' की खूब है और साथ ही अन्य भाषाओं की प्रांतीयता भी खुल खेल रही है। परंतु यह सब हो क्यों रहा है ? क्या हिंदी अथवा किसी दूसरी देश भाषा में दोष आ गया है ? हो सकता है आ गया हो, पर अपना तो विश्वास है कि जो अंगरेजी से अछूता है वह इस प्रपंच से भी मुक्त है और आज भी कबीर के कंठ से कंठ मिला कर उसी सुर में गा रहा है-- नदिया एक घाट बहुतेरा, कहै कबीर समझ का फेरा । निश्चय ही समझ के फेर से ही हमारी मति फिर गई है और हम इस कुफेर में पड़कर एक दूसरे को सशंक दृष्टि से देख रहे हैं। बात यह है कि हमारे हृदय की धार रह रह कर हमें बताती है कि तुम्हारी भारती एक है और सर्वत्र उसी की उपासना होती है, सभी भाषाएँ अपने अपने डङ्ग से अपने अपने देश में उसी का कार्य कर रही हैं। पर हमारी समझ फिर जाने से, अँगरेजी फेर में पड़ जाने से सर्वत्र कुछ और ही देखने लगी है। संक्षेप में, हमारा संस्कार हमारी संस्कृति से कुछ अलग पड़ गया है और हम में जहाँ-तहाँ कुछ विलगाव श्रा गया है। उस विलगाव को दूर कर फिर सबको एक ही सामान्य भावभूमि पर लाना हमारे कवि का सर्वप्रथम कर्तव्य है। आज भाषा नहीं इसी भाव का अभाव है। हम इसी भाव को सत्त्वशील देखना चाहते हैं और इस काल की विकृति को फिर अपनी प्रकृति के मेल में लाना चाहते हैं। हमारा संस्कार बिगड़ गया है और उसी की छाया हमें रातदिन सता रही है। अगरेज गया पर अँगरेजी माया नहीं गई। उसको दूर करने का व्रत यहीं, इसी मायापुरी में ग्रहण कर लेना चाहिए । स्मरण रहे यह 'द्वार"