पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३१०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०० राष्ट्रभाषा पर विचार 'वर्ष' के परे काल भी है, देश भी है। हम इसको जानते भी हैं, पर मानते प्रतिदिन के व्यवहार में वर्ष को ही हैं। द्वीप, वर्ष, खंड, देश, क्षेत्र एवं स्थान का नाम हम नित्य अपने संकल्प में लेते हैं और अभिषेक में भी समस्त वर्ष के पानी को पा लेते हैं, पर फिर भी अपने कृत्य में हम नहीं समझते कि इस कर्म में कहीं खोट भी है। इस अनुष्ठान में कहीं बाधा भी है। यही नहीं भाषा के क्षेत्र में भी हमारी यही स्थिति है। नाटकों में हम क्या देखते हैं। संस्कृत सभी पात्र समझते हैं, पर बोलते अपनी अपनी प्राकृत हैं। क्यों ? क्यों नाटककार ने प्राकृतों को स्थान दिया और संस्कृत के साथ उन्हें भी जीवन का वरदान दिया ? जानते हैं, आज की स्थिति प्राकृत के और भी अधिक अनुकूल है और उसे और भी समृद्ध तथा सम्पन्न बनाता है। निदान देशभाषा तथा देश को महत्त्व देना ही होगा। देशभाषाओं को अपने देश में फूलने का पूरा अधिकार होगा। कोई भी देश- भाषा हमारी ऐसी नहीं जिसका विकास भारतीयता का नाशक हो अथवा जिससे 'भारती' सन्तति को कुछ भी क्लेश पहुँचे । कहा जा सकता है कि बंगाल बँगला का पूरा क्षेत्र रहा और वह बंगाली भावना से भर गया। किंतु इतिहास इसके विपरीत है। बंगाल की ओर से हिंदी के लिये इतना कुछ किया गया कि उसका उल्लेख ही व्यर्थ है। बंगाल जब तक बँगला का रहा हिंदी का रहा जब वह अँगरेजी की माया में आ गया तब हिंदी के विरोध में लगा। केशवचंद्रसेन ने ही तो स्वामी दयानंद सर- स्वती से 'भाषा' के लिये अनुरोध किया था और श्रीबंकिमचंद्रजी ने ही तो स्पष्ट कहा कि एक दिन हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा बनेगी?