पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३०९

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राष्ट्रभाषा की उलझन २६६ है और हम पुण्यतोया भागीरथी के तट से घोषणा करते हैं कि हम इसी देश-भावना के पक्षपाती हैं और यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि जैसी इसी पापनाशिनी धारा की स्थिति है वैसी ही राष्ट्रभाषा की। गंगा आपके देश में नहीं वहती वह आपके हृदय में बसती है। आप उसे उठाकर अपने यहाँ नहीं ले जा सकते किंतु उसकी एक बूंद से आप जितना पवित्र हो सकते हैं उतना कोई तटवासी कदापि नहीं। लोग कहते और न जाने क्या कहते हैं । क्या द्वारिका में कृष्ण के बस जाने से ब्रज का महत्व चला गया ? ठीक ही तो कहा गया है- न देवः पर्वताने न देवो विष्णु सदनि । देवश्चिदानंदमयो हृादे भावेन दृश्यते ।। अस्तु वस्तुतः यदि राष्ट्रदेव का साक्षात्कार करना है तो बाबा मन की आँखें खोल, बाबा मन की आँखें खोल। और मन की आँख खुली तो आपने प्रत्यक्ष देखा कि भारत का प्रत्येक प्राणी भारती प्रजा है और हृदय ले विश्वास करता उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।। सोचिए तो सही, क्या कारण है कि जो प्रति दिन 'संकल्प' में 'जंबूद्वीप का नाम लेता है वही अपने आप को जंबूद्वीपी न कह कर भारती कहता है। इसका कुछ तो कारण होगा। आप द्वीप' का उद्घोष करते पर अपनी दौड़ को सीमित रखते 'वर्ष तक ही हैं । स्मरण रहे, 'वर्ष' काल का ही नहीं देश का भी द्योतक है।