पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३०८

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राष्ट्रभाषा पर विचार कुछ बखेड़ा आज इसी शब्द का खड़ा किया हुआ है और सच तो यह है कि इसके समाधान के बिना किसी सच्ची राष्ट्रभाषा का उदय भी नहीं हो सकता। कहने को कोई कुछ भी कहे, पर दस के बीच बुद्धि से काम लेकर कौन कह सकता है कि वर्तमान प्रांतों का संघटन लोकदृष्टि से भाषा के आधार पर हुआ है। सरकार के यहाँ बम्बई एक प्रांत अवश्य है, पर एक ऐसा प्रांत है जिसकी अपनी कोई प्रतिभाषा नहीं; और यदि कदाचित् है भी तो एक नहीं तीन । अँगरेजी सरकार का इसी में हित था उसे वस्तुतः अँगरेजी को प्रांतभाषा बनाना था जिसके लिये प्रांत का ऐसा रूप खड़ा करना ही उसको इष्ट था। किंतु आज की स्थिति तो कुछ और है। आज बम्बई व्यापार का नगर है जिस पर सभी की आँख है गुजरात और महाराष्ट्र में वह किसका हो, इसका भी संघर्ष है। फिर समझ में नहीं आता कि प्रांतभाषा है क्या बला और प्रांतीय का अर्थ है क्या। दूसरी ओर आप प्रत्यक्ष देखते हैं कि गुजरात एक देश है और गुजराती एक प्राणी जिसका अर्थ सर्वत्र एक ही समझा जाता है। जो गुजराती है वह बम्बई में भी गुजराती है. और अहमदाबाद में भी गुजराती है, दिल्ली में भी गुजराती है और कलकत्ते में भी गुजराती ही। तो क्या गुजराती होने के नाते वह भारत के विकास में कंटक का काम करेगा और गुजराती का विकास राष्ट्र के अमंगल का हेतु होगा? यदि हाँ, तो 'राष्ट्रपिता' कहाँ के थे और कहाँ के थे राष्ट्रद्रष्टा स्वामी दयानंद सरस्वती, और साथ ही खड़ी बोली' के प्रथम प्रयोक्ता लल्लू जी लाल भी ? मान, हम तो मान नहीं सकते कि यदि गुजरात एक प्रांत बन गया और महाराष्ट्र दूसरा तो घोर अनर्थ हो गया और हमारी राष्ट्रीयता चकलाचूर हो गई। नहीं, वास्तव में जो है उसी को मान कर चलना हमारे लिये मंगलप्रद