पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/३०५

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मौलाना आजाद की हिंदुस्तानी २६५ कौन कहे ? पर इतना कौन नहीं जानता कि वास्तव में महात्माजी हिंदुस्तानी के दीक्षा गुरु यही मौलाना साहब हैं । अस्तु, इसके बारे में थोड़ा और विचार कर लेना चाहिये जिससे राष्ट्रभाषा का मार्ग सदा के लिये साफ हो जाय और भारत की राजभाषा में अब कोई अड़चन न पड़े। सो बार-बार यह कहा गया है कि मौलाना अबुल कलाम आजाद' की कृपा से उर्दू अरबी-फारसी से भर गई और वह ‘फकत मुसलमानों की जवान होकर रह गई।' परंतु ध्यान से देखें और इतिहास के कान से सुनें तो उर्दू पहले भी कुछ और न थी। सीधी सी बात तो यह है कि भाषा के क्षेत्र में जो 'उर्दू' है, भेष के क्षेत्र में जो 'तुर्की लिबास' है वही राजनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान' । तीनों एक ही विचार धारा के परिणाम हैं और उनके एकत्र रहने में ही देश का कल्याण है। प्रसंग उर्दू का है अतः उसके विषय में इतना जान लीजिये कि- उर्दू ने हमेशा सलतनतों की आगोश' में दरस्थित पाई । बाद- शाही दरबारों और शाही महलों में परवान चढ़ी। दिल्ली लाख उजड़ी सही फिर भी एक कदीम सलतनत की राजधानी थी। वह सलतनत हजार गई गुजरी थी लेकिन अदीबों का मावा व मलजा यी । दिल्ली के अलावा अगर उर्दू की रास आई तो लखनऊ की रंगीन फज़ा । माना कि लखनऊ की ऐशपरवर फजा ने उसकी मिट्टी खराब कर दी थी और उतका फितरी हुन्न मदशा- तगी के हाथों खाक में मिल गया था फिर भी उसके परस्तारों की रोटियों का सहारा यही था । (उर्दू अदब बीसवीं सदी में, वही, पृष्ठ १) २-उन्नत हुई। ३-पुरानी । ४-शिष्टों । ५-याश्रय । ६-शरण। ७~-राशि । ८-क्षेत्र । ६-स्वाभाविक १०-बिलासिता । ११ ---पुजारियों ।