पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२९९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मौलाना आजाद की हिंदुस्तानी २८६ भी अभिमान किया है ? नहीं, उनकी धारणा ही कुछ और रही है। अधिक से अधिक इस विषय में उनका कहना यह है- हमारी बोलियाँ अलग थीं, मगर हम एक ही जबान बोलने लगे, हमारे रस्म व रिवाज एक दूसरे से वेगाना' थे, मगर उन्होंने मिल जुलकर एक नया साँचा पैदा कर लिया ! हमारा पुराना लिबास, तारीख की पुरानी तसवीरों में देखा जा सकता है मगर वह अब हमारे जिल्मों पर नहीं मिल सकता। यह तनाम मुशतरक सरमाया हमारी मुत्तहदा कौमियत की एक दौलत है और हम उसे छोड़कर उस जमाना की तरफ लौटना नहीं चाहते, जब हमारी यह मिलीजुली जिंदगी शुरुष नहीं हुई थी। हम में अगर ऐसे हिंदू जिंदगी वापस लायें तो मालूम होना चाहिये कि वह एक ख्वाब देख रहे हैं और वह कभी पूरा होनेवाला नहीं। इसी तरह अगर ऐसे मुसलमान दिमाग़ मौजूद हैं जो चाहते हैं कि अपनी गुज़री हुई तइजीत्र व मुश्राशरत को फिर ताजा करें जो वह एक हजार बरस पहले ईरान और बल एशिया से लाये थे तो मैं उनसे भी कहूँगा फि इस ख्वाब से जिस क़दर जल्द वेदार हो जायें बेहतर है। क्योंकि यह एक कुदरती तखैय्युल है और हकीकत की सरजमीन में ऐसे खयालात उग नहीं सकते । (खुतवाद, वही, पृष्ठ ३६७-८) देखने में तो इसमें कोई दोष नहीं, पर वास्तव में बात कुछ और ही है। हिंदू तो हिंदू ही रहा । उसको अलग छोड़िए और आप ही इंसाफ कीजिए कि मुसलमानों में अधिक संख्या ईरानी- तूरानी मुसलमानों की है या हिंदी मुसलमानों की है । या हिंदी जुली। ३-अतीत! ४-मध्य। १-भिन्न । २-मिली ५-ठावधान।६-कल्पना।