पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२९८

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राष्ट्रभाषा पर विचार इंसानी अामाल' की रवाह कोई शाख हो, हम तो उसे मजहब ही की नज़र से देखते हैं। हमारे पास अगर कुछ है तो सिर्फ कुर्बान ही है, इसके सिवा हम कुछ नहीं जानते । सारी दुनिया की तरफ से हमारी आँखें बंद हैं, और तमाम आवाजों से कान बहरे है। अगर देखने के लिये रोशनी की जरूरत है तो यकीन कीजिए कि हमारे पास तो 'सिराजे मुनीर37 की बख्शी हुई एफ ही रोशनी है। उसे हटा दीजियेगा तो बिल्कुल अंधे हो जायेंगे । ( मज़ामीन आजाद, कौमी कुतुबखाना, रेलवे रोड लाहौर, सन् १६४४ ई०, पृष्ठ० १३) इतना ही नहीं अपितु- अगर फी-उल-हकीकत दुनिया की किसी कौम के पास कोई उम्दा खयाल, कोई वाक़ई सचाई और कोई अच्छा अमल पाया जाता है तो उसके यह माने हैं कि वह बदरजा औला इसलाम में मौजूद है, और अगर नहीं है तो उसकी अच्छाई भी काबिले तसलीम नहीं ! (वही पृ०४१) ऐसी स्थिति में विचारणीय यह हो जाता है कि हमारे देश का जो सारा वाङ्मय है उसकी दशा मौलाना की दृष्टि में क्या होगी और हिंदुस्तानी की हैसियत से उसके प्रति उनका व्यवहार क्या होगा। क्या उसका प्रकाश उनकी दृष्टि में अच्छा होगा और उसके विकास को वे देख भी सकेंगे ? निवेदन है लक्षण तो इसके सर्वथा प्रतिकूल ही दिखाई देता है। कारण कि उसकी अच्छाई मौलाना को मान्य नहीं। ध्यान से सुनें, कहीं मौलाना अबुल- कलाम 'आज़ाद' ने एक हिंदुस्तानी के नाते इस 'सरमाया' का १-याचरो । २-चाहे कुछ भी। ३-परम ज्योति । ४-सचमुच । ५---सूक्ष्म | ६-मानने के योग्य ।