पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२९४

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२८४ राष्ट्रभाषा पर विचार नाम पर अपना प्राण दे सकती है, पर हिंदुस्तानी की बात में अपना सिर नहीं। वह जानती है कि उर्दू उसकी नहीं, फिर चाहे जिसकी हो । रही हिंदी, सो उसे छीन कौन सकता है ? दस दिन के लिए उसकी छाती पर मूंग चाहे जो दल उसका अंत भला कब हो सकता है। वह जी में जमी, मन में रमी, चित्त में बसी और कान में भरी है। रही 'हिंदुस्तानी'। सो इस अमर परी को चाहे जितना पाल लें। यह कभी न इस देश की हुई और न कभी होगी। और यदि होना चाहती है तो 'हिंदी' तो वह है ही। उसका विरोध कैसा ? नहीं चाहती, इसी से तो 'हिंदी' से जलती और उसे अपनी सौत समझती है ? वह 'सच्ची है। इसकी परख यही है कि वह 'हिंदी' को मान ले, नहीं तो उसकी पूछ दिल्ली में भले ही हो पर देश में उसको स्थान नहीं । देश अपना हृदय चाहता है अपमान नहीं । मान हिंदी में है 'हिंदुस्तानी' में नहीं, हिंदुस्थानी ? वह तो रही नहीं। आपने उसको कब पहिचाना ? वह 'पन्ना' नहीं 'पूतना है, 'दुर्गा' नहीं 'तिलोत्तमा' है, 'चाँदबीबी' नहीं 'नूरजहाँ है, 'जहाँआरा' नहीं रोशनआरा' है, और है आप की भावती' भी ? उससे आप का उद्धार कहाँ ?