पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२९०

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राष्ट्रभाषा पर विचार २८० बनी। उर्दू भी उससे कुछ अलग खड़ी कर दी गई और हसरत भरी निगाह से इस लाडले को देखने लगी। हिंदी और उर्दू का झगड़ा वस्तुतः देशी और विदेशी, हिंदी और तूरानी का झगड़ा था पर ग्रियर्सन की कृपा से एक ओर तो वह हिंदू-मुसलमान का द्वन्द्व बना और दूसरी ओर हिंदी और हिंदुस्तानी में राशि का झगड़ा छिड़ गया और नाम का बखेड़ा खड़ा हो गया। अहिंदी भाषी तह की बात ताड़ न सके और हिंदी को बनावटी मान 'हिंदुस्थानी' के भुलावे में 'हिंदुस्तानी' के हो रहे: और भ्रम किंवा व्यामोहवश उर्दू की ओर से 'हिंदी' पर हमला करने लगे। महात्मा जी भी हिंदी से हिंदी-हिंदुस्तानी की ओर ढले और पहले हिंदी याने हिंदुस्तानी' की व्याख्या करते रहे, पर जब दबाव पका पड़ा और जाल भी सच्चा विछा तब 'हिंदुस्तानी के फंदे में आ फंसे और उस 'सरस्वती' की शोध में लगे जो लुप्त होकर प्रयाग में कहीं लुप्त पड़ी थी। कदाचित् 'नया हिंद' ने उसे ठेके में पा लिया है। परंतु दिल्ली की 'हमारी जबान' ने उसे 'सरस्वती देवी' समझ लिया और एक उर्दू देवी ने उसे बुतपरस्ती का फतवा-सा मान लिया । भला जहाँ का जी ऐसा भरा हो वहाँ विवेक का नाम कैसा ? 'महामना' व्याकुल थे कि विदेशी विद्वान उनकी बात नहीं मानते 'महात्मा' हैरान थे कि अब क्या करें। कैसे हैवान को इंसान बनाएँ और पाकिस्तान को आदमी । जवाहिर परेशान हैं कि हिंदुस्तानी नाक कैसे रहे और 'आज़ाद' की 'जुबान' न डिगे। पर लोग कहते हैं-लोकतंत्र है, लोकतंत्र । अब लोक की सुनें और लोकवाणी हिंदी को अपना लें । बुद्धि कहती है ठीक है, विवेक कहता है साधु, है, नीति कहती है, न्याय है, पर जीभ कहती है-नहीं, हिंदुस्तानी'। इसी का अभ्यास जो हो गया है ! और अहिंदी भाषी ? उसकी कुछ