पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८८

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२७८ राष्ट्रभाषा पर विचार हिंद सरकार में आपस में कुछ ऐसी छनी कि हैदराबाद, मैसूर और मद्रास को अलग कर दिया गया और शेष भाग की भाषा पड़ताल हुई । फलतः आज भी हैदराबाद उर्दू का अड्डा है और मैसूर 'राज्य' से 'रियासत' बन गया है चक्रवर्ती राजाजी के शासन में, और मद्रास तो 'हिंदुस्तानी' के प्रचार में लगा ही है। कहते हैं, वहाँ 'हिंदी' का विरोध भी हो रहा है। क्यों न हो,भाषा-पड़ताल में वह भारत के साथ कब था ? कहिए, हैं न आज 'चचिल' से पर ग्रियर्सन के दास ? और दास हैं अपनी 'खुशी' और महात्मा की 'मरजी' से। ग्रियर्सन साहब कहते हैं कि पड़ताल का प्रस्ताव वियना में सन् १८८६ में ही स्वीकृत हो गया था पर अर्थाभाव के कारण व्यवहार की बात हुई १८६४ में ही। हमारा भी निवेदन है-जी हाँ, ८५ में कांग्रेस बन गई थी और ६३ में 'मुहम्मडन-एंग्लो इंडियन-डिफेंप्त एसोसियेशन', फिर शुभ मुहूर्त पर सूत्रपात क्यों नहीं होता ! भारत-सरकार जो ठहरी ? हिंद की सरकार और हिंदुस्तानी की भक्ति ? श्री सर जार्ज इब्राहीम ग्रियर्सन ने बड़े भोले भाव से कहा है कि हिंदुस्तानी गंगा-यमुना के उत्तरी द्वाब की बोली है इसको तो हमने लिया है सर चार्ल्स ल्याल्ल के लेख से और जो दोनों लिपियों में लिखी जा सकती है को ग्रहण किया है मिस्टर ग्राउज से। हमने बस इन्हीं बातों को अपनी शोधों से सिद्ध भर किया है। ठीक है, रहे पर रद्दा जमाना ही तो अँगरेजी कूटनीति है । पर सब मिलाकर आपने तमाशा जो खड़ा किया है वह तो सबसे निराला है न ? आपने 'खड़ी बोली' का तो नाम भी नहीं लिया है और 'नागरी' पर कृपा कर यह रिमार्क जड़ दिया है कि यह प्रसिद्ध लिपि का नाम है और इसीसे कभी कभी यह 'हिंदी' का एक रूप भी बता दी जाती है। ऐसा नहीं कि आपने