पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिंदुस्थानी का भवजाल अरब मुसलमान हुए लेकिन उनके अदब की ज़बान अरबी ही थी। यहाँ तक कि जब पारती मुसलमान हो गए तब उनकी अदबी जुबान भी अरबी हो गई। बाद में जिन मुसलमानों के अदब की जबान फारसी हुई उनमें कहने को भी अरब कितने थे। अरब फारसी को किस दृष्टि से देखते थे इसका पता इस प्रवाद से चल जाता है कि खलीफा मानून ने सन् १६६ हिजरी में 'ईद' का जो दरवार किया तो पूछा-क्या कोई फारसी में रचना कर सकता है ? झट एक ईरानी युवक आगे बढ़ा और अपनी जवान में एक कसीदा रच सुना दिया । परिणाम यह हुआ कि सर धड़ से अलग हो गया। अपनी माँ की बोली का यह पुरस्कार मिला ? फिर भी हमारे देश के अभिमानी मुसलिम युनिवर्सिटी अलीगढ़ के उर्दू-प्रोफेसर हिंद के मुसलमान को 'तारीख हिंदी में यह सबक सिखाते हैं कि वह अरब वंश का है और उसकी अद्वी जबान फारसी है। और हम भी इन्हें सच्चा पाठ पढ़ने का अवसर नहीं देना चाहते । कारण, हम सत्य और अहिंसा के भक्त जो ठहरे ? हम 'मुसलमान की बात को असत्य कैसे मान सकते हैं ? हमारे यहाँ का 'नट' और 'दुरजी' भी तो खलीफा' है न ? अस्तु, हमारा कहना है कि जब १८६२ में आपको आँसू पोछने को कुछ अधिकार मिला और आप एक देश के वासी होने के कारण, बिना हिंदू-मुसलिम भेद के, उसके अधिकारी समझे गए तब 'अरबननाद' हजरत सर सैयद का आसन डोल गया और उनका 'मुसलमान' खतरे में पड़ गया। फिर क्या था, मुसलिमहित- रक्षा की समिति बनी और उसका नाम भी रख दिया गया एम ए० ओडिफेंस एसोसियेशन' । सन् १८६३ में जब यह डिफेंस अलीगढ़ में कायम हो गया तब सरकार को सन् १८६४ में सभी 'भारत की भाषा-पड़ताल की। फिर तो प्रांतीय सरकारों और