पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८४

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२७४ राष्ट्रभाषा पर विचार और कहने को सबकी । सच पूछिए तो आज की हिंदुस्तानी कोष की हिंदुस्तानी है जो वाक्य में शब्दों की तोड़-मोड़, उखाड़-पखाड़ या सरकार की बेगार से बनती और किसी की छाप से हिंद को भरमाती रहती है। तत्त्व-दृष्टि से खोपड़ी की खाज के अतिरिक्त हम इसे कुछ और नहीं कह सकते और राष्ट्र की दृष्टि के कोढ़ में की लाज तो है ही। भाषा के क्षेत्र का इसे फ्रंग रोग ही समझिए सचमुच फिरंग ही इसका आचार्य है। रंग लाने के लिए फिरंगी ने जिस रँगीली की रचना की उसी का नाम हिंदुस्तानी है। जो है नहीं, होने को है-मेल नहीं मिलाने से। किंतु हमारा कहना है-मिलाने की चिंता दूर करो और करो मिलने का काम । बस, आप ही बेड़ा पार है। नहीं तो 'दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम' मिलने की भाषा उर्दू नहीं, हिंदुस्तानी नहीं; नहीं, वह तो हिंदी ही है। कौन सी हिंदी ? मूढ़ता का प्रश्न है। वही हिंदी जो आप अपने आप वेदना से लिखेंगे और अधिक से अधिक लोगों को समझने का अवसर देंगे। समझने और बोलने में भेद है और भेद है बोलने तथा समझने में भी। हम जितना समझते हैं उतना बोल नहीं पाते और जितना बोलते हैं इतना समझा भी नहीं पाते । इसलिए बोलचाल की भाषा में लिखने का चाहे जितना फरमान निकाला जाय पर साहित्य बनेगा हृदय की भाषा में ही जिसे वाचाल भले ही न माने पर सहृदय तुरत ताड़ लेगा। बात जीभ और कान की नहीं, प्राण और चित्त की है। लेखक की चित्तवृत्ति को देखिए । उसकी प्रवृत्ति को सुधारिए । हिंदुस्तानी के थोथे फतवे से कुछ नहीं होगा और होगा भी तो विद्या का विनाश और बुद्धि का ह्रास ही। राष्ट्र का उद्धार खेल नहीं जो बातों और विधानों में सध जाय । नहीं, इसके लिए तो राष्ट्र के हृदय में पैठना होगा और जानना होगा उसके मन को,