पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिंदुस्थानी का भँवजाल २७३ पहली जीत है। उक्त कालेज के हिंदी मुदरिस गिलक्रिस्ट साहब ने न तो गवारी' शैली को लिया और न 'मिरजा' शैली को। उन्होंने तो बीच की 'मुंशी' शैली को लिया। और यह प्रत्येक के प्रतिदिन के अनुभव की बात है कि 'मुंशी' सदा 'दरबार' का होता है कुछ घर या 'धरबार' का नहीं, फलतः 'मुंशी जी की जबान भी 'मिरजा' साहब की जबान बनने लगी और धीरे धीरे 'मिरजा' से भी दुरूह हो गई। उधर एक बात और हुई। हिंदु- स्तानी की गवारी' शैली को जान-बूझकर 'हिंदुई' कहा गया। फिर क्या था प्रजा के नाते "हिंदुई' का नाम लिया गया और राजा के नाते उर्दू का, और अपने धंधे के लिये हिंदुस्तानी का । कहिए, किस सफाई से 'हिंदी' विदा हुई। पर राजा और प्रजा, हिंदू और मुसलमान दोनों ही 'हिंदी' को जानते थे और अपने आप इसी का व्यवहार भी करते थे अँगरेजों की करनी अथवा अपनी अकड़ से ५७ की क्रांति मची तो हिंदू-मुसलिम मिल गए और अँगरेज जाता जाता रह गया। फिर तो स्वर्गीय सर सैयद अहमद खाँ बहादुर की मंत्रणा से वह काम कर गया कि धाज स्वतंत्र होकर भी आप उसी का पानी भर रहे हैं और अपनी 'हिंदी' छोड़ उसी की हिंदुस्तानी' को पोस रहे हैं । परंतु यह 'मुंशी की हिंदुस्तानी अपनी सरकार का काम कर सकती है, आपका उद्धार कदापि नहीं। अगरेज के यहाँ अब 'हिंदुई नहीं रही। नहीं, वह तो 'उच्च हिंदी' हो गई और यहाँ के गवार भी अब बोलने लगे "हिंदुस्तानी' । सनी 'मुंशी' जो हो गए ! किंतु पहले कहा जा चुका है कि हिंदुस्तानी हिंदी का पर्याय है और अहिंदी क्षेत्रों में इसी की ओट में हिंदुस्तानी अपना घर वना रही है। पर किसकी हिंदुस्तानी ? दिल्ली की नहीं, लखनऊ की नहीं, प्रयाग की नहीं, काशी की नहीं, कहीं की नहीं, १८