पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८२

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२७२ राष्ट्रभाषा पर विचार जाता था। और उसके प्रसाद के बिना यहाँ किसी प्रकार का व्यापार करना असंभव समझा जाता था। और स्वयं सम्राट और शाहजादे भी हिंदी पढ़ते-लिखते थे। औरंगजेब की तूरानी नीति और शिवा जी की सूरत लूट का प्रभाव अँगरेजों पर कुछ कम न पड़ा। दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह तूरानी-दल के नेता सैयद-बंधुओं का विनाश और साथ ही राष्ट्र का ध्वंस भी । वैसे तो इरानी-तूरानी अमीर या सरदार भी पद और जागीर के हेतु आपस में लड़ते रहे पर 'हिंदी' को दबाने में दोनों साथ रहे १७४४-५ में फारसी के भोग के लिये उर्दू-ए-मुअल्ला में उर्दू की ईजाद की जिसके धनी ले-दे के 'किला' के लोग ही रहे । दक्षिण में 'आसफजाह के जम जाने और वहाँ की नबाबी के टिक जाने से वहाँ भी 'उर्दू का सिक्का चल निकला। अँगरेज का पाला उन्हीं नवाबों से पड़ा जो उर्दू के भक्त हो रहे थे। बंगाल क्या, उस समय चारों ओर मुसलमानी अमीरा उसी के प्रचार में लीन थे। किसी भी दरबार की भाषा फारसी या उर्दू ही थी। 'फारसी 'फरमान' की और उर्दू 'फरमाने की । 'कंपनी' दीवान बनी तो उसके कर्मचारियों को इन भाषाओं को सीखना ही पड़ा और जब जनता से संपर्क बढ़ा तब ठेठ हिंदी का ठाठ भी दिखाई पड़ा। फिर तो बढ़कर हाथ मारने और पक्की जड़ जमाने के लिये फोर्ट विलियम-कालेज की स्थापना हुई और एक ही भाषा की तीन शैलियाँ मानी गई। भाषा का नाम 'हिंदुस्तानी' मँज गया था। अस्तु वही ठीक ठहराया गया। मीर अम्मन के पहले भी किसी दिल्ली के रोड़े ने अपनी जबान को 'हिंदुस्तानी' कहा हो, इसका पता नहीं पर हिंदी का प्रयोग अपनी जबान के अर्थ में रादर' के बाद तक फरसी के भक मिरज़ा "शालिब" तक ने किया है। 'हिंदी' के स्थान पर हिंदुस्तानी' का प्रयोग अँगरेज की