पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८१

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हिंदुस्थानी का भँवजाल २७१ वस यही तो इसका बल है ? किंतु कोई पूछे तो सही इन विधा- ताओं से कि घर की बोली सबकी बोली कब हुई है और सवकी बोली शिष्ट की भाषा कब बनी है ? सीधी सी बात है। आप घर में जिस वेष और जिस भूया में रहते हैं क्या उसी वेष और उसी भूषा में बाहर भी जाते हैं ? क्या जीवन में बनाव- धुनाव, सिंगार-पटार, बन-ठन और हाव-भाव का कोई महत्त्व नहीं ? यदि हाँ, तो यह गोहार कैसी ? और कैसा यह रोना ? भले आदमी का काम है भला बनना और भला बनने का अर्थ है सवको नहीं अपने संघ व समाज को भला लगना । बस इसी बनने-बनाने का नाम तो सृष्टि है, सर्जन है, रचना है और है साहित्य भी ? फिर इसी की उपेक्षा क्यों ? कारण समाज नहीं राज है, जनता नहीं जन है, ज्ञान नहीं मोह है। और है पक्की विडंबना भी। कहते हैं-हम स्वतंत्र हैं। करतत्र बताता है---पर- तंत्र । कहा जा चुका है कि बादशाहनामा में हिंदुस्तानी जवान' का प्रयोग हुआ है संगीत की शिष्ट भाषा व्रजभाषा के लिये, जिसे उर्दू के लोग 'ग्वालियारी' के रूप में जानते हैं। और यह भी कहा गया है कि इस 'हिंदुस्तानी' को अहिंदीभाषी बहुत दिनों से जानते हैं हिंदुस्थानी के रूप में ही। हिंदुस्थानी' का फारसी में उसी तरह हिंदुस्तानी हो गया जिस तरह 'जगन्नाथ कविराय का 'जगन्नात' । अस्तु, अब देखना यह चाहिए कि यह हिंदुस्तानी हिंदी से उर्दू कैसे हो गई और क्यों 'उर्दू' की न रहकर 'उत्तर द्वाब' की मानी गई। हाँ, अँगरेजों या गोरों को यह नाम 'दक्षिण' में मिला पहले बाएं से दाए अर्थात् आज की हिंदी के रूप में ही। परंतु यह उस समय की बात है जब दिल्ली का मुगल सम्राट कुछ समझा