पृष्ठ:राष्ट्रभाषा पर विचार.pdf/२८

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राष्ट्रभाषा पर विचार लिये भी हुआ है। विद्यापति 'ठाकुर' का अवहट्ट प्रेम तो पुस्तक (कीर्तिलता) के रूप में प्रकाशित हो चुका है । मध्य देश के गहड़वार शासक गोविंदचंद्र के दानपत्रों में 'ठक्कुर' शब्द का व्यवहार खूब हुआ है। उनमें से एक में (एपिग्राफिका 'डिका भाग ४, पृ० १०४ ) "श्रीवास्तव्यकुलोद्- भूतकायस्थ ठकुर श्रीजल्हणेन लिखितः" भी लिखा गया है। 'ठक्कुर' शब्द के अर्थ-विस्तार पर विचार करना है तो आवश्यक पर यहाँ संभव नहीं है: अतः संक्षेप में यहाँ कहा यही जाता है कि मूलतः यह टक्कनिवासी का द्योतक है। टक्क, ठक्क एवं ढक्क तीनों रूप संस्कृत में साथ साथ चलते रहे हैं। एक बात और । हमने कालिदास के दूतकर्म पर अन्यत्र विचार किया है। उससे अवगत हो जाता है कि कामरूप पर उनका कितना ऋण है। हमारी समझ में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन में बंगाल में 'कायस्थ' (जाति नहीं) गए और उन्हीं के द्वारा वहाँ अपभ्रंश का प्रचार हुआ। इस प्रसंग में भूलना न होगा कि कालिदास ने प्रमत्त विक्रम के मुख से जो अपभ्रंश भाषा निकाली है उसका एकमात्र कारण यही है कि वास्तव में वही उसकी जन्मभाषा थी। हमारा मत है कि मेहरौली के लोहस्तंभ में जो धावेन' का प्रयोग हुआ है उसका अर्थ है धवदेश के निवासी के द्वारा, किसी अन्य चन्द्र' के द्वारा नहीं। सारांश यह कि गुप्त साम्राज्य में ही पहले पहल अपभ्रंश को महत्त्व मिला और वह देखते ही देखते विभाषा से काश्य भाषा बन चली। अपभ्रंश को लेकर धीरे-धीरे हम इतनी दूर निकल आए कि १- विक्रम स्मृति-प्रन्थ, सं० २००१ वि०, ग्वालियर पृ० ३०७१.